Thursday, September 11, 2014

ऐसी हिंदी,  कैसी हिंदी


टी वी पर मोहरा फिल्म चल रही है रोमा यानी रवीना टंडन अमर यानी अक्षय कुमार को फोन पर कह रही है , "यह आदमी बिलकुल भी रहमदिल नहीं है "वहीं असल दुनिया में हिंदी के एक मास्टर साहब अपने घर में डायलॉग राइटर को कोस रहे हैं कि रहमदिल लिखने की क्या जरूरत थी जब दयालु लिखा जा सकता था फिल्म के दृश्य के अलावा भी सुबह शाम चलते फिरते ऐसे मौके आते रहते हैं जहाँ खुद को हिंदी का रहनुमा बताने वाले अपने हिंदी प्रेम को यही कहकर दिखाते हैं "ऐसी हिंदी,  कैसी हिंदी"|

हर बार की तरह इस बार भी तमाम सरकारी दफ्तरों में जब हिंदी दिवस पर कार्यक्रम की औपचारिकताएं बरती जा रही होंगी तब यह सवाल भी सामने आयेंगे कि वास्तव में मानक हिंदी का सही स्वरूप कौनसा है ? वह जो  बौलिवुड ने हमें सिखाया है या वह जो सरकारी दस्तावेज में और आदेशों में दिखता है याकि वह जो परीक्षाओं में हिंदी के अभ्यार्थियों के लिए प्रश्न पत्र में नजर आता है|


सरकारी हिंदी , फ़िल्मी हिंदी , साहित्यिक हिंदी , अखबारी हिंदी, संस्कृत निष्ठ हिंदी, फेसबुकिया हिंदी,  क्लिष्ट हिंदी से लेकर न जाने कैसी कैसी हिंदी के रूप रोज गढे जाते हैं और लोग अपनी हिंदी दूसरे की हिंदी से बेहतर जताने की कोशिश में बहस करते रह जाते हैं| एक बहस के बाद दूसरी बहस इस बात की शुरू होती है कि भाषा के अनेक रूप इसे सशक्त कर रहे हैं या और कमज़ोर बना रहे हैं| और ऐसे ही हिंदी हिंदी खेलते खेलते पूरा सितम्बर गुजर जाता है , और हिंदी का फितूर भी |

वैसे ठीक मायनों में देखा गया है कि जिसकी लाठी उसके भैंस वाली कहावत हिंदी पर भी लागू होती है इसलिए ही राजधानी और उसके आस पास वाले क्षेत्र की हिंदी को ही “सही” मान लिया गया है| वहीं बिहार , बंगाल और पूर्वोतार के तलफ्फुज का लिहाफ ओढी हिंदी को गलत हिंदी का तमगा दे दिया गया और “शुद्ध” हिंदी के पैनल में बैठने वाले लोग इसमें दोष निकालते रहे| सही गलत की इस माथापच्ची में ऐसी हिंदी गुम हो जाती है जो समझ में आ सके |

हिंदी भाषा अपने आप में ही एक ऐसी अलकनंदा है जो अनेक भाषाओं और बोलियों के भावों और शब्दों को अपने भीतर समाहित कर समृद्ध होती है तो फिर जब कुछ और भाषाओं के शब्द जैसे “दरवाजा” से लेकर “अलमारी” तक आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं तो कथित हिंदी प्रेमियों को चुभन क्यों होती है|
हिंदी के बदलते स्वरूप को बिखरता स्वरूप बताने वालों से ज्यादा दोष अनुवाद में शामिल उन लेखकों का भी है जो अंग्रेजी के अनुवाद को अंग्रेजी का ही चश्मा पहनकर हिंदी में अनुवाद करते हैं और शुद्ध हिंदी का शब्द ढूंढते ढूंढते वाक्यांश का सर पैर उलट देते हैं| अनुवाद को जितना बोझिल और नीरस काम माना जाने लगा है दरअसल यह उतना ही जिम्मेदारी वाला काम है पर दुर्भाग्यवश इस काम में लगे लेखक शब्दसः अनुवाद कर अर्थ का अनर्थ करते आ रहे हैं और शायद करने में लगे रहेंगे|

भाषा अपने आप में सिर्फ विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है तो जब तक ऐसे शब्दों का सहारा लेकर आप अपनी बात दूसरे तक पहुंचा रहे हैं , और ऐसे पहुंचा रहे हैं कि सामने वाले को समझ में भी आ रहा है तो इसका उद्देश्य पूरा माना जाना चाहिए | ऐसे में क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध |

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