Thursday, October 9, 2014

















वह आयी नहीं हैं अब तक 
चादरों की सिलवटों ने 
किवाड के कब्जों से यूं सवाल किया 
कमरे के किनारों में सजी 
तुम्हारी महक शर्माने लगी फिर 
बताने लगी सबको
कि वह नहीं तो क्या 
मैं  छिपी  तो रहती हूँ 
फिर किचन से प्याले ने 
तर होने को अर्जी लगाई 
सूख गया होगा शायद 
बिना चाय के 
अकेले जो चाय पी जाती है
उसे बस पीया जा सकता है 
जीया नहीं जा सकता 
बाहर छत के कोनों में 
 कितने अखबार
रबरबेंड में लिपटे पड़े रह गए
पर पढ़े नहीं गए
जीने ने इठलाना शुरू कर दिया है 
खिड़की भी फिर इतरा रही है 
दरवाजा फिर धड़क रहा है शायद 
लगता है तुम आ गई हो