Tuesday, September 30, 2014

ऐसी क्रिकेट कैसी क्रिकेट

टी वी पर किसी चैम्पियंस लीग टी-ट्वेंटी का मैच आ रहा है| कोलकाता नाईट राइडर्स और किसी अन्य विदेशी टीम या क्लब का मैच चल रहा है| दोनों ही टीम के ज्यादातर खिलाडी पहचाने हुए से नहीं दिखाई पड़ते| फिर एक दम से वह दौर याद आ जाता है जब सभी टीम के खिलाड़ियों के स्कोर और आंकडें मुंह जबानी याद रहते थे| दोस्तों से स्कूल में ,कॉलेज में, पार्क, कैंटीन और सफ़र के दौरान इनको लेकर चर्चा और बहस होती रहती थी| मैंने बहुत दिनों से मेट्रो में, ट्रेन में किसी को बीती रात के मैच को लेकर चर्चा करते हुये नहीं सुना| इस खेल का दीवानापन कम हुआ है या लोगों ने इसे गंभीरता से लेना बंद कर दिया है?


सही मायनों में देखा जाये तो बाजार और ‘बोर्ड’ दोनों ने इस ही पागलपन को भुनाने के कशिश की थी और विश्कप के बाद से ट्वेंटी ट्वेंटी और ट्वेंटी ट्वेंटी से लेकर आई पी एल तक का सफ़र तय हो गया | आईपीएल भी सिर्फ सालाना रहा गया तो सीएल टी-ट्वेंटी आ धमका| रोज रोज एक नए फॉर्मेट का क्रिकेट इजाद होता जा  रहा है | मनोरंजन के नाम पर इसके साथ बहुत छेड़छाड़ पहले ही हो चुकी है|  
बाजार के दबाव में ‘टू मच ऑफ क्रिकेट’  का यह दौर जरूर धीरे धीरे क्रिकेट के लिए लोगों की दीवानगी को और कम कर देगा साथ ही ऐसी क्रिकेट को भी जिसमें हर गेंद पर दिलों में भी संभावनाओं की बौलिंग हो रही होती थी|

आज क्रिकेट के दीवाने याद रखें भी तो कितने और किसके आंकडें ... वह भी कौनसे फॉर्मेट के...वन डे या टी ट्वेंटी के या फिर आईपीएल के| इतना तो ठीक है पर जब एक ही खिलाड़ी आज किसी और टीम से तो कल किसी और टीम से खेलता दिख जाता है तो और मुश्किलें पैदा हो जातीं हैं|

इस पूरे खेल में मुनाफा तो सबका ही है | स्पोंसर्स को बाजार, चैनलों को विज्ञापन और खिलाड़ियों को मोटी रकम, बुकीज और सटोरियों को मौका और दर्शक बेचारा बस ठगा रह जाता है| जैसे वह हर “खेल” में रह जाता है|
शायद यही कारण है कि खेल में खिलाड़ी भी नहीं गढ़े जा रहे बस सितारे रचे जा रहे हैं जो किसी भी तरह बाजार और बिजनेस दोनों को लुभा सकें|    

सवाल फिर भी यह रह जाता है कि क्या बाज़ार इस खेल को भुनाने के चक्कर में जो कर रहा है वह एक दिन क्रिकेट के प्रति नशे या दीवानगी को ख़तम तो नहीं कर देगा? आधा तो वैसे ही ख़तम हो चुका है|

Wednesday, September 17, 2014

When I'm surrounded by people...

When I'm surrounded by people...

When I am surrounded by people
sitting in a group
I don't find what to say
I keep struggling for words,
and the story that could be shared
or some joke I had read 
my mind wrangles
my eyes hunt for a focus
my heart tells me
Yes, yes you are a misfit here
when I'm surrounded by people...

When people have on their lists 
awesome stories to tell
and other memoirs they mention
I look at my phone
and start reading messages
that I had already read before
Or make my phone silent
And go to the other room
pretending I have a call
The lonely other room yells at me
How long can you be here

Is it the confidence that I lack
Or the experience that I don't have
not many questions,
I am preparing myself
for another session
session where I will have a story
There I shall know what to say 
and to say how
Ohh! I talk a lot to myself
when I am surrounded by people...



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Thursday, September 11, 2014

ऐसी हिंदी,  कैसी हिंदी


टी वी पर मोहरा फिल्म चल रही है रोमा यानी रवीना टंडन अमर यानी अक्षय कुमार को फोन पर कह रही है , "यह आदमी बिलकुल भी रहमदिल नहीं है "वहीं असल दुनिया में हिंदी के एक मास्टर साहब अपने घर में डायलॉग राइटर को कोस रहे हैं कि रहमदिल लिखने की क्या जरूरत थी जब दयालु लिखा जा सकता था फिल्म के दृश्य के अलावा भी सुबह शाम चलते फिरते ऐसे मौके आते रहते हैं जहाँ खुद को हिंदी का रहनुमा बताने वाले अपने हिंदी प्रेम को यही कहकर दिखाते हैं "ऐसी हिंदी,  कैसी हिंदी"|

हर बार की तरह इस बार भी तमाम सरकारी दफ्तरों में जब हिंदी दिवस पर कार्यक्रम की औपचारिकताएं बरती जा रही होंगी तब यह सवाल भी सामने आयेंगे कि वास्तव में मानक हिंदी का सही स्वरूप कौनसा है ? वह जो  बौलिवुड ने हमें सिखाया है या वह जो सरकारी दस्तावेज में और आदेशों में दिखता है याकि वह जो परीक्षाओं में हिंदी के अभ्यार्थियों के लिए प्रश्न पत्र में नजर आता है|


सरकारी हिंदी , फ़िल्मी हिंदी , साहित्यिक हिंदी , अखबारी हिंदी, संस्कृत निष्ठ हिंदी, फेसबुकिया हिंदी,  क्लिष्ट हिंदी से लेकर न जाने कैसी कैसी हिंदी के रूप रोज गढे जाते हैं और लोग अपनी हिंदी दूसरे की हिंदी से बेहतर जताने की कोशिश में बहस करते रह जाते हैं| एक बहस के बाद दूसरी बहस इस बात की शुरू होती है कि भाषा के अनेक रूप इसे सशक्त कर रहे हैं या और कमज़ोर बना रहे हैं| और ऐसे ही हिंदी हिंदी खेलते खेलते पूरा सितम्बर गुजर जाता है , और हिंदी का फितूर भी |

वैसे ठीक मायनों में देखा गया है कि जिसकी लाठी उसके भैंस वाली कहावत हिंदी पर भी लागू होती है इसलिए ही राजधानी और उसके आस पास वाले क्षेत्र की हिंदी को ही “सही” मान लिया गया है| वहीं बिहार , बंगाल और पूर्वोतार के तलफ्फुज का लिहाफ ओढी हिंदी को गलत हिंदी का तमगा दे दिया गया और “शुद्ध” हिंदी के पैनल में बैठने वाले लोग इसमें दोष निकालते रहे| सही गलत की इस माथापच्ची में ऐसी हिंदी गुम हो जाती है जो समझ में आ सके |

हिंदी भाषा अपने आप में ही एक ऐसी अलकनंदा है जो अनेक भाषाओं और बोलियों के भावों और शब्दों को अपने भीतर समाहित कर समृद्ध होती है तो फिर जब कुछ और भाषाओं के शब्द जैसे “दरवाजा” से लेकर “अलमारी” तक आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं तो कथित हिंदी प्रेमियों को चुभन क्यों होती है|
हिंदी के बदलते स्वरूप को बिखरता स्वरूप बताने वालों से ज्यादा दोष अनुवाद में शामिल उन लेखकों का भी है जो अंग्रेजी के अनुवाद को अंग्रेजी का ही चश्मा पहनकर हिंदी में अनुवाद करते हैं और शुद्ध हिंदी का शब्द ढूंढते ढूंढते वाक्यांश का सर पैर उलट देते हैं| अनुवाद को जितना बोझिल और नीरस काम माना जाने लगा है दरअसल यह उतना ही जिम्मेदारी वाला काम है पर दुर्भाग्यवश इस काम में लगे लेखक शब्दसः अनुवाद कर अर्थ का अनर्थ करते आ रहे हैं और शायद करने में लगे रहेंगे|

भाषा अपने आप में सिर्फ विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है तो जब तक ऐसे शब्दों का सहारा लेकर आप अपनी बात दूसरे तक पहुंचा रहे हैं , और ऐसे पहुंचा रहे हैं कि सामने वाले को समझ में भी आ रहा है तो इसका उद्देश्य पूरा माना जाना चाहिए | ऐसे में क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध |