Monday, December 13, 2010

शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी छोड़िये..अश्विनी की कहानी पढ़िये|


पूरा देश मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी में मस्त है लेकिन मंगलौर से 100 किलोमीटर दूर जन्सेल जाने वाले रास्ते पर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है|इसमें अश्विनी नाम की एक लड़की को शुभकामनाएं दी गयी हैं| सिद्दपुर गाँव के किसानो,मजदूरो,और अध्यापकों ने मिलकर ही चंदा किया और इस बोर्ड को यहाँ लगवाया| यही लोग मिलकर पर्चे बाँट रहे हैं जिसमें अपने गाँव की इस नयी नायिका की तस्वीर है और शुभकामना सन्देश छपा है| “अश्विनी अक्कुंजी चिदानान्दा” ,यही नाम है यहाँ की नायिका का जिसने पहले राष्ट्रमंडल खेलो में 4X400m रिले में तीसरे लेग में दौडकर नाइजेरिया की धाविका को पछाड कर बढत बनायी और स्वर्ण पदक जितवाया| और फिर एशियाई खेलों में 400m हर्डल्स व 4X400m रिले में दो स्वर्ण पदक जीतकर न सिर्फ अपने गाँव सिद्दपुर को बल्कि पूरे देश को गर्व करने का मौका दिया है| ५०० लोगों की आबादी वाले जन्सेल गाँव की ओर जाती हुयी कच्ची सड़क पर अपने परिवार कि १२ गायों को चराते चराते अश्विनी ने दौडना सीख लिया| और जब ऐसे दौड़ते दौड़ते रुकी तो चीन में दो स्वर्ण पदक हाथ में आ चुके थे| यहाँ के विधायक लक्ष्मीनारायण अब वादा कर रहे हैं कि अब इस कच्ची सड़क को पक्का कराया जाएगा ताकि अब अश्विनी अपनी नई गाडी से गाँव तक वापस आ सके| उसका परिवार अपनी साल भर की मेहनत से सिर्फ ६० कुइंटल चावल की पैदावार कर पता है| और यही ६० कुइंटल चावल इस परिवार की कमाई का जरिया बनता है| तंगी के कारण ही ये परिवार अक्टूबर में अपनी लाडली को राष्ट्रमंडल खेलो में रिले दौड में भागते हुए देखने के लिए दिल्ली नहीं जा पाया था| राष्ट्रमंडल खेलो में जब उसने रिले में स्वर्ण जीता था तो मिक्स्ड ज़ोन में मेरे दीदी कहकर संबोधित करने पर वो भावुक हो गयी थी| एक पत्रकार को बताया कि इस वक्त वो सबसे ज्यादा अपनी छोटी बहनों को ही याद कर रही हैं जो यहाँ नही आ पायीं| अश्विनी अब अपनी आदर्श पी टी उषा का राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोडना चाहती है और भारत को ओलम्पिक में पदक दिलाना चाहती है| और ऐसा करने के लिए बीच में आने वाली सभी “हर्डल्स” को यह “हर्डल्स धाविका” आसानी से पार कर जायेगी|

दिल्ली मुंबई और अन्य बड़े शहरों में जहाँ युवा लड़के लड़कियां टेनिस और क्रिकेट के ग्लैमर में खोकर अपना करियर बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीँ छोटे गाँव और कस्बों की कहानी कुछ और है| रायबरेली की सुधा ..केरल की प्रीजा श्रीधरन ..और जन्सेल की अश्विनी ने गरीबी में भी अपने गाँव से एशियन खेलो तक की दौड़ लगा ली| इन्होने किसी खेल में करियर बनाने के लिए दौडना शुरू नहीं किया| किसी ने अपने स्कूल तक पहुचने के लिए १० किमी तक दौड़ लगायी तो कोई पानी भरने के लिए रोज ७ किलोमीटर तक पैदल चली| अश्विनी ,कविता रावत और प्रीजा जैसी लड़कियों ने अपने परिवार की कमज़ोर आर्थिक स्थिति और सुविधा के अभाव को ही अपनी ताकत बना लिया| यदि यह भी किसी महानगर के कथित 'अपर मिडल क्लास' में पली बड़ी होती तो “why should boys have all the fun??” चिल्लाकर एक्टिवा और स्कूटी रौंद रही होती| रोज की दिनचर्या में शामिल लंबी दूरी तय करने वाली गाँव की पगडंडियाँ ही इनका “प्रेक्टिस ट्रेक” बनी|

बचपन में अश्विनी के पिता ने गांववालों के विरोध के बावजूद विद्यानगर खेल अकादमी ,बंगलौर भेज दिया| जहाँ से एक साल की ट्रेनिंग के बाद टाटा एथलेटिक अकादमी जमशेदपुर चली गयी |फिर भारतीय रेलवे में टिकेट कलेक्टर की नौकरी भी मिल गयी |अब रेलवे ने ही अश्विनी को राष्ट्रमंडल खेलो में जीत के बाद १५ लाख का पुरस्कार दिया है |जन्सेल के बाशिंदों में भी अब एथलेटिक्स को लेकर नयी उमंग जागी है| गाँव में एक ही स्कूल है और इस स्कूल के सब बच्चे अब धावक ही बनाना चाहते हैं |माँ बाप भी अब उन्हें प्रोत्साहन देने को तैयार हैं अश्विनी की कहानी अब आप तक पहुँच चुकी है आप भी मेरे साथ उसे सलाम करने को तैयार हो जाइए| अश्विनी को सलाम|

Sunday, August 22, 2010

यह दिल्ली है मेरे यार .....


रोज़ अपने मेल चेक करता हूँ तो दो तीन सहपाठी अपने नए लेख का लिंक मुझ तक पहुंचा देते हैं । उनकी बेबाक राय और सृजनशक्ति से प्रेरित होकर मैं भी सोचता हूँ की आज ब्लॉग पर कुछ नया पोस्ट करूँगा। दिल्ली में अपने पिछले एक महीने में मकान ढूँढने के अनुभवों को दोस्तों के साथ बाटने से बेहतर क्या हो सकता है। जब आया तो ऊंची इमारतें और सडको पर रेंगती गाड़ियां मेरा स्वागत करती नज़र आयीं। इसी का नाम दिल्ली है। छोटे शहर से आने वाले हर नौजवान के मन में ऐसी ही तस्वीरें सबसे पहले घर करती होंगी ।फिल्मो में देखता था की जब गाँव का लड़का शहर पहुँचता है तो सबसे पहले ऊंची ऊँची इमारतों को देखकर फ्रीज़ हो जाता है । जैसे इन इमारतों से कहीं ऊंचे उसके ख्वाब हैं जिन्हें संग अपने बैग में लादे वो शहर तक आ गया है। यूँ तो दिल्ली के कोने कोने में रिश्तेदारों की एक जमात भरी पड़ी है जो अब तक दिल्ली में प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने में काम आती रही । पर अब मामला एक दिन या दो दिन का नहीं ,एक साल का है । भारतीय समाज में रिश्तेदारों के यहाँ लम्बे वक्त तक रुकना एक अपराध से कम नहीं माना जाता।यह वही समाज है जो "अतिथि देवो भवः" का सूत्र दुनिया के सामने परोसता है। पर जब अतिथि महोदय की कृपा अधिक समय तक बरसने लगे तो उसका मन ही मन बहिष्कार किया जाने लगता है । खैर लेख का मकसद अनुभवों को बांटना है ,आलोचना परोसना नहीं।
ब्लू लाइन बसों की भीड़ ,हर वक्त कोलाहल पैदा करती गाड़ियां और दनदनाती हुई मेट्रो ..सब पहले नहीं देखा था । बचपन में एक बार दिल्ली आया था तो इंडिया गेट पर एकघंटा खड़ा होकर कौतुहल से गाड़ियों को निहारता रहा । जितनी देर में कोई गाडी पसंद आती उस से पहले ही सनसनाती हुई आँखों के सामने से ओझल हो जाती। आज गाड़ियों की संख्या अधिक हो गयी है सनसनाती गाड़ियाँ सिर्फ कुछ हिस्सों में ही दिख रही हैं ।कुछ दिन अतिथि सुख भोग लेने के बाद अपना आशियाँ कहीं और ढूँढने का मन बना लिया । "कटवारिया सराय में ही लेना वहां सस्ता मिलेगा। "मुनिरका ही सबसे नज़दीक है वहां बाज़ार भी है,वही लेना "ऐसी ही सलाह दोस्त देते रहते ।एक दोस्त को लेकर हलकी बूंदा बांदी में यह महा खोज यात्रा आरम्भ की। कटवारिया से ही श्री गणेश किया गया । सोचा घर घर जाकर पूछेंगे की मकान खाली है ??लेकिन ऐसा करना कितना सफल होगा इसकी उम्मीद नहींथी।
घर के दरवाजों को खटखटाने पर जो महिला बाहर निकल कर आती ,सबसे पहले ऊपर से नीचे देखती जैसे कोई अभियुक्त हों। फिर पूछती कहन के हो ,क्या करते हो ,फॅमिली वाले हो ??यह आखिरी सवाल जरा अजीब लगता । फिर सोचा शायद बड़ी शेव के कारण इन्हें मैं सिंगल नहीं लगा । पूरा इंटरव्यू लेने के बाद यह आंटी कह देती की नहीं खाली नहीं है कोई कमरा । लेकिन जो भी मना कर रहा था उनमे एक बात कॉमन थी ।हर कोई उम्मीद जगा रहा था .."अगली एक को खाली हो जायेगा "..."१० तारीख को आजाना बेटा तब मिल जायेगा" ..."खाली होने ही वाला है"। किसी ने बताया ,अन्दर जाओ वहां दूकान पर पता करो ..मिल जाएगा । "दुकान " पर ''मकान" मिल जाएगा ऐसा कहीं नहीं सुना था । जैसे ही पहुंचे तो उस पर एक कागज़ चस्पा किया हुआ था जिसमे सिंगल रूम के अवैलेबल होने की बात लिखी थी । तंग गलियों से गजरते हुए खोजयात्रा एक ठिकाने पर आकर रुकी । बहुत ऊँची सी इमारत थी जैसे माचिस के छोटे छोटे डब्बों को एक जैसा रंग कर एक के ऊपर एक सजा दिया हो। ऊँची इमारत में दूकान वाला लड़का बसेमेंट में ले जाने लगा । वहीँ एक खाली कमरा था । खोला तो लगा जैसे बरसो से कमरा खुद को अकेला महसूस कर रहा था और उसका सारा अकेलापन एक अजीब से दुर्गन्ध की शक्ल अख्तियार कर चुका है । वो घुटन और गंध हमारे अन्दर आने का विरोध कर रही थी । पुरानी फिल्मो में ऐसे ही कमरों में खलनायक नायक की प्रेमिका को अगवा कर छुपा लेता था । हम दोनों ही नाक मुह सिकोड़ने लगे । किराया पूछा तो बोला २५०० रुपया ।कमरे का दरवजा खोलते ही दुसरे किरायेदार का गुसलखाना सामने था । मकान के सामने बस इतनी ही जगह थी की सडक पर से एक साइकिल निकल जाए । इतनी ऊंची बिल्डिंग में भी बसेमेंट नसीब हुआ था हमे ।दोनों चल पड़े । उपर वाले कमरे की अँधेरी खिड़की से एक लड़की झाँक रही थी ,मैंने मुड़कर देखा तो पर्दा गिरा दिया । ज्यादातर नौजवान कमरा देखने से पहले आस पास की रहने वाली लडकियों को ही देखते हैं और फिर फैसला करते हैं ।
फिर अगली गली में एक मकां के बाहर बोर्ड दिखा तो उस पर दोस्त का सर नेम मेल खा गया ।सामने वाले का सर नेम अपने से मिलता हो तो एक नयी उम्मीद जग जाती है । बाहर ही एक आंटी बैठी थी । उनसे पूछ लिया कमरे के लिए । हमे मालूम था, एक बार फिर वही इंटर व्यू शुरू हो जाएगा इसलिए जल्दी जल्दी निपटाने की कोशिश की। एक काम करने वाली महिला बगल में खडी थी उसने बताया सामने उपर वाला खली है । आंटी उस पर बरस पड़ी । अनजाने में ही एक वाक् युद्ध वहां आरम्भ हो गया । हम खिसक लिए। और बताये गए मकां पर पहुचे । एक गुफानुमा जीने से उपर चढ़ हम कमरे तक पहुंचे । सामने ही एक और किरायेदार आंटी थीं जो मकां मालिक की अनुपस्थिति में मालिक की भूमिका निभा रही थीं । पता चला की जो आंटी नीचे लड़ रहीं थी उनसे इन की नहीं बनती । वो इनका कमरा उठता हुआ नहीं देख सकती ।महिलाओं की लड़ाई होती ही ऐसी है ,पूरी तरह निभायी जाती है । फिर शुरू वही सारे सवाल । अच्छा लगा की इसबार फॅमिली वाला सवाल नहीं पूछा । पूरी कोशिश की थी सिंगल दिखने की । किराये की बात, बिजली का बिल और सारे प्रतिबंधो का खुलासा उन्होंने पहली मुलाकात में कर दिया । "ज्यादा दोस्त घर पर नहीं आने चाहिए ...देर रात को घर पर मत लौटना ..लड़की तो मकां के आस पास तक नहीं आने चाहिए ..दोस्तों का जमघट घर पर ज्यादा न लगे"..और न जाने कितने ही ऐसे कायदे क़ानून उन्होंने गिना दिए । मुझे कमरे की जरूरत थी । सारी शर्ते एक सुर में स्वीकार लीं । बाद में देखा जायेगा की क्या मानना है और क्या नहीं । आंटी किरायेदार ही थी इसलिए उन्होंने हमारी किराए कम करने की गुहार को सहर्ष स्वीकार कर लिया । हम अपने सामने वालो के किसी एक स्वरुप को अपने से रिलेट कर लेते हैं और एक आत्मीयता जग जाती है ।आंटी के दिल में जगी यही आत्मीयता हमारे लिए किराया कम करा गयी । मकां मालिक को फ़ोन पर किराया बताया गया । उसे किराया कम लगा ,उसने कहा कल तक बताएँगे।इतनी जद्दोजहद के बावजूद भी एक कमरा हाथ नहीं लगा । इसी दुःख के साथ वहां से चल दिए । शाम का समय था ज्यादातर महिलायें और उनकी बेटियाँ घरो की छतो और बालकोनी में मौसम का आनद लेने आई थी । नीचे होने वाली हर गतिविधि पर निगाहें रखे हुए । हम निकले तो पूरी कालोनी की नज़र हम पर ही फोकुस थीं । आंटी और उनकी बेटियाँ ताड़ रही थी । थोडा असहज लगने लगा । कैमरा कोन्शिअस होना सुना था आज महिला कोन्शिअस भी होना सीख लिया।सभ्य पुरुष की यही निशानी है। बसते को काँधे पर लादे और निगाहें नीचे कर चप्पलो की चप् चप् के साथ कीचड उड़ाते हुए निकल लिए इस उम्मीद के साथ की शायद ये कमरा तो मिल ही जाये कल तक। खोज यात्रा का एक दिन तो ख़तम हुआ और अनेक पडावो से गुजर लिए। पर मंजिल अभी दूर ही थी। महानगर में एक छत ढूंढना इतना रोचक रहेगा सोचा नहीं था। सुनते थे "दिल्ली दिलवालों की है'। यहाँ बस पहले कोई घर में जगह दे दे ...दिल में जगह अपने आप बना लूँगा।

Sunday, January 10, 2010

एक प्याला चाय....


मैक डोनाल्ड और पिज्जा हट की चका चौंध की ओर भागने वाली इस दुनिया में आज भी कहीं ऐसा कोना है जहाँ आपको सर और मैडम कहते नौजवान और नव युवती नहीं दिखेंगे और ना ही आपको खाने के लिए एक लम्बा किताबनुमा मेनू थमा दिया जायेगा|आपने कभी न कभी तो अपने दोस्तों ,अपने साथियों या अपने सहकर्मियों के साथ कहीं न कहीं किसी एक दूर छुपे हुए कोने में एक बरसाती की छांव के तले बनी एक चाय की दूकान पर एक प्याला चाय तो पी ही होगी |.मैं भी यहाँ अपने इसी अनुभव जो की अब एक दिनचर्या का अहम् हिस्सा भी बन चुका है पर अपना लेख लिख रहा हूँ |मेरे भी इंजीनियरिंग कॉलेज से कुछ क़दमों की दूरी पर एक ऐसी ही बरसाती की छावं तले एक चाय की दूकान पर हमेशा एक जमावड़ा लगा रहता है| इंजीनियरिंग ,डिप्लोमा,कला,विज्ञान के छात्रो से लेकर स्थानीय और छुट भय्यिओं नेताओं तक सभी यहीं अपने फुरसत के लम्हों को एक प्याला चाय की चुस्कियों में बिताने आते रहते हैं|पर यहाँ आकर मकसद भले ही फुरसत के लम्हों को बिताना हो पर यहाँ बैठकर हर कोई एक नया जामा पहन लेता है |"एक प्याला चाय "इन शब्दों से शरू होता यहाँ का सफ़र राजनीति, क्रिकेट और बॉलीवुड की गलियों से गुजरकर कब अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है किसी को पता ही नहीं चलता|यहाँ पर आने वाले लोगो के बीच भी एक अनूठा रिश्ता होता है|मैं भी जब पहली बार गया था तो सबसे अलग ही रहता था पर अब बहुतो के साथ एक नया रिश्ता बन चुका है|"एक प्याला चाय" का रिश्ता |यहाँ लोग एक दूसरे को नाम से नहीं पर उनकी यहाँ की रोज की मौजूदगी से पहचानते हैं|बस जाते ही एक दुसरे की और मुस्कुराये ,अपना चाय का प्याला दिखाकर संबोधन किया और शुरू हो गए चुस्कियों की उड़ान भरने |आपा धापी के इस दौर में जहाँ हर रिश्ता बेमानी सा होता जा रहा है, आदमीयत ख़तम होती जा रही है वहां पर रिश्तों को नया आयाम देने वाला ये मॉडल अपने आप में नए रिश्तों को बनाने की एक नयी गाथा कह रहा है|"शायरी वाले भय्या" "सलमान खान" "पल्सर वाले भय्या" बस इन्ही नामो से सब एक दूसरे को जानते हैं और संबोधित भी करते हैं |कोई यहाँ आर्थिक मंदी की मार के कारण पनपी बेरोजगारी के दुखड़े रोता दिख जायेगा तो कोई सचिन और सहवाग को भी यहीं से क्रिकेट के गुर सिखाने के जतन करता मिलेगा|ऐसा लगता है मानो कल के वैज्ञानिक,क्रिक्केटर,राजनेता,सब यहीं से पनपेंगे और कांग्रेस और भाजपा को अपनी रण नीति यहाँ पर बैठे विदयानो से बनवानी चाहिए |
इतना ही नहीं बल्कि वैश्विक मुद्दों के अलावा यह स्थान लोकल खबर के न्यूज़ चैनल का भी काम बखूबी करते हैं|आपके मोहल्ले की कोई भी घटना जो आप तक नहीं पहुची तो आप यहाँ आकर बैठिये और अनेको संवाददाता आपको सारी खबरों से रू बा रू करा देंगे|फलां लड़का जेल चला गया ,वर्मा जी के यहाँ चोर घुस आये ,कितना सामन लेकर गए उसका सही आकड़ा भी यहाँ ही पता चलेगा ,उपाध्याय जी की मास्टर साहब से तू तू मैं मैं तक की ख़बरें यही आकर सुलभता से मिल जाएँगी | यही आकर इस बात का भी इल्म हो जाता है कि इश्वर ने वास्तव में कुछ चेहरों को फुर्सत में ही बनाया है |TV कि तुलसी पारवती से लेकर कोइना मित्रा जैसे चेहरे जब इन्ही दुकानों के सामने से गुजरते हैं तो लड़के उनको आँखों ही आँखों में घर तक छोडकर आने के बाद ही अपनी नज़र हटाते हैं |
यहाँ कुछ रिश्ते और भी मधुर तब हो जाते हैं जब आपके पास खुले पैसे नहीं होते और कोई अपना हाथ बड़ा कर आपको खुले पैसे थमा देता है |दिल्ली के मुखर्जी नगर ,पुणे के एक्टिंग संस्थानों के बाहर और आगरा के दयालबाग में ऐसी अनेको चाय की दुकानों पर मुझ जैसे करोणों नौजवान सपनो की दुनिया में अपना घर तलाशते नज़र आ जायेंगे|कोई अधिकारी ,कोई अभिनेता तो कोई किसी निजी कंपनी के C E O बनने का सपना यहीं आकर देखता है और वहां तक पहुचने के सक्सेस मंत्रा यहीं पर खोजता रहता है |और यहीं का माहोल उन्हें न सिर्फ उन्हें सपने देखना सिखाता है बल्कि और भी बहुत कुछ सिखा जाता है|मैं तो यहाँ आकर एक प्याला चाय देखकर यही सीख पाया कि जीवन में पैसे कमी अहमियत उतनी ही है जितनी कि "एक प्याला चाय में चीनी की"|बहुत कम हो तो स्वाद नहीं आएगा और बहुत ज्यादा हो तो भी स्वाद बिगड़ जाएगा |
.............हिमांशु सिंह
लाला टी स्टाल
दयालबाग ,आगरा