Thursday, October 9, 2014

















वह आयी नहीं हैं अब तक 
चादरों की सिलवटों ने 
किवाड के कब्जों से यूं सवाल किया 
कमरे के किनारों में सजी 
तुम्हारी महक शर्माने लगी फिर 
बताने लगी सबको
कि वह नहीं तो क्या 
मैं  छिपी  तो रहती हूँ 
फिर किचन से प्याले ने 
तर होने को अर्जी लगाई 
सूख गया होगा शायद 
बिना चाय के 
अकेले जो चाय पी जाती है
उसे बस पीया जा सकता है 
जीया नहीं जा सकता 
बाहर छत के कोनों में 
 कितने अखबार
रबरबेंड में लिपटे पड़े रह गए
पर पढ़े नहीं गए
जीने ने इठलाना शुरू कर दिया है 
खिड़की भी फिर इतरा रही है 
दरवाजा फिर धड़क रहा है शायद 
लगता है तुम आ गई हो 

Tuesday, September 30, 2014

ऐसी क्रिकेट कैसी क्रिकेट

टी वी पर किसी चैम्पियंस लीग टी-ट्वेंटी का मैच आ रहा है| कोलकाता नाईट राइडर्स और किसी अन्य विदेशी टीम या क्लब का मैच चल रहा है| दोनों ही टीम के ज्यादातर खिलाडी पहचाने हुए से नहीं दिखाई पड़ते| फिर एक दम से वह दौर याद आ जाता है जब सभी टीम के खिलाड़ियों के स्कोर और आंकडें मुंह जबानी याद रहते थे| दोस्तों से स्कूल में ,कॉलेज में, पार्क, कैंटीन और सफ़र के दौरान इनको लेकर चर्चा और बहस होती रहती थी| मैंने बहुत दिनों से मेट्रो में, ट्रेन में किसी को बीती रात के मैच को लेकर चर्चा करते हुये नहीं सुना| इस खेल का दीवानापन कम हुआ है या लोगों ने इसे गंभीरता से लेना बंद कर दिया है?


सही मायनों में देखा जाये तो बाजार और ‘बोर्ड’ दोनों ने इस ही पागलपन को भुनाने के कशिश की थी और विश्कप के बाद से ट्वेंटी ट्वेंटी और ट्वेंटी ट्वेंटी से लेकर आई पी एल तक का सफ़र तय हो गया | आईपीएल भी सिर्फ सालाना रहा गया तो सीएल टी-ट्वेंटी आ धमका| रोज रोज एक नए फॉर्मेट का क्रिकेट इजाद होता जा  रहा है | मनोरंजन के नाम पर इसके साथ बहुत छेड़छाड़ पहले ही हो चुकी है|  
बाजार के दबाव में ‘टू मच ऑफ क्रिकेट’  का यह दौर जरूर धीरे धीरे क्रिकेट के लिए लोगों की दीवानगी को और कम कर देगा साथ ही ऐसी क्रिकेट को भी जिसमें हर गेंद पर दिलों में भी संभावनाओं की बौलिंग हो रही होती थी|

आज क्रिकेट के दीवाने याद रखें भी तो कितने और किसके आंकडें ... वह भी कौनसे फॉर्मेट के...वन डे या टी ट्वेंटी के या फिर आईपीएल के| इतना तो ठीक है पर जब एक ही खिलाड़ी आज किसी और टीम से तो कल किसी और टीम से खेलता दिख जाता है तो और मुश्किलें पैदा हो जातीं हैं|

इस पूरे खेल में मुनाफा तो सबका ही है | स्पोंसर्स को बाजार, चैनलों को विज्ञापन और खिलाड़ियों को मोटी रकम, बुकीज और सटोरियों को मौका और दर्शक बेचारा बस ठगा रह जाता है| जैसे वह हर “खेल” में रह जाता है|
शायद यही कारण है कि खेल में खिलाड़ी भी नहीं गढ़े जा रहे बस सितारे रचे जा रहे हैं जो किसी भी तरह बाजार और बिजनेस दोनों को लुभा सकें|    

सवाल फिर भी यह रह जाता है कि क्या बाज़ार इस खेल को भुनाने के चक्कर में जो कर रहा है वह एक दिन क्रिकेट के प्रति नशे या दीवानगी को ख़तम तो नहीं कर देगा? आधा तो वैसे ही ख़तम हो चुका है|

Wednesday, September 17, 2014

When I'm surrounded by people...

When I'm surrounded by people...

When I am surrounded by people
sitting in a group
I don't find what to say
I keep struggling for words,
and the story that could be shared
or some joke I had read 
my mind wrangles
my eyes hunt for a focus
my heart tells me
Yes, yes you are a misfit here
when I'm surrounded by people...

When people have on their lists 
awesome stories to tell
and other memoirs they mention
I look at my phone
and start reading messages
that I had already read before
Or make my phone silent
And go to the other room
pretending I have a call
The lonely other room yells at me
How long can you be here

Is it the confidence that I lack
Or the experience that I don't have
not many questions,
I am preparing myself
for another session
session where I will have a story
There I shall know what to say 
and to say how
Ohh! I talk a lot to myself
when I am surrounded by people...



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Thursday, September 11, 2014

ऐसी हिंदी,  कैसी हिंदी


टी वी पर मोहरा फिल्म चल रही है रोमा यानी रवीना टंडन अमर यानी अक्षय कुमार को फोन पर कह रही है , "यह आदमी बिलकुल भी रहमदिल नहीं है "वहीं असल दुनिया में हिंदी के एक मास्टर साहब अपने घर में डायलॉग राइटर को कोस रहे हैं कि रहमदिल लिखने की क्या जरूरत थी जब दयालु लिखा जा सकता था फिल्म के दृश्य के अलावा भी सुबह शाम चलते फिरते ऐसे मौके आते रहते हैं जहाँ खुद को हिंदी का रहनुमा बताने वाले अपने हिंदी प्रेम को यही कहकर दिखाते हैं "ऐसी हिंदी,  कैसी हिंदी"|

हर बार की तरह इस बार भी तमाम सरकारी दफ्तरों में जब हिंदी दिवस पर कार्यक्रम की औपचारिकताएं बरती जा रही होंगी तब यह सवाल भी सामने आयेंगे कि वास्तव में मानक हिंदी का सही स्वरूप कौनसा है ? वह जो  बौलिवुड ने हमें सिखाया है या वह जो सरकारी दस्तावेज में और आदेशों में दिखता है याकि वह जो परीक्षाओं में हिंदी के अभ्यार्थियों के लिए प्रश्न पत्र में नजर आता है|


सरकारी हिंदी , फ़िल्मी हिंदी , साहित्यिक हिंदी , अखबारी हिंदी, संस्कृत निष्ठ हिंदी, फेसबुकिया हिंदी,  क्लिष्ट हिंदी से लेकर न जाने कैसी कैसी हिंदी के रूप रोज गढे जाते हैं और लोग अपनी हिंदी दूसरे की हिंदी से बेहतर जताने की कोशिश में बहस करते रह जाते हैं| एक बहस के बाद दूसरी बहस इस बात की शुरू होती है कि भाषा के अनेक रूप इसे सशक्त कर रहे हैं या और कमज़ोर बना रहे हैं| और ऐसे ही हिंदी हिंदी खेलते खेलते पूरा सितम्बर गुजर जाता है , और हिंदी का फितूर भी |

वैसे ठीक मायनों में देखा गया है कि जिसकी लाठी उसके भैंस वाली कहावत हिंदी पर भी लागू होती है इसलिए ही राजधानी और उसके आस पास वाले क्षेत्र की हिंदी को ही “सही” मान लिया गया है| वहीं बिहार , बंगाल और पूर्वोतार के तलफ्फुज का लिहाफ ओढी हिंदी को गलत हिंदी का तमगा दे दिया गया और “शुद्ध” हिंदी के पैनल में बैठने वाले लोग इसमें दोष निकालते रहे| सही गलत की इस माथापच्ची में ऐसी हिंदी गुम हो जाती है जो समझ में आ सके |

हिंदी भाषा अपने आप में ही एक ऐसी अलकनंदा है जो अनेक भाषाओं और बोलियों के भावों और शब्दों को अपने भीतर समाहित कर समृद्ध होती है तो फिर जब कुछ और भाषाओं के शब्द जैसे “दरवाजा” से लेकर “अलमारी” तक आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं तो कथित हिंदी प्रेमियों को चुभन क्यों होती है|
हिंदी के बदलते स्वरूप को बिखरता स्वरूप बताने वालों से ज्यादा दोष अनुवाद में शामिल उन लेखकों का भी है जो अंग्रेजी के अनुवाद को अंग्रेजी का ही चश्मा पहनकर हिंदी में अनुवाद करते हैं और शुद्ध हिंदी का शब्द ढूंढते ढूंढते वाक्यांश का सर पैर उलट देते हैं| अनुवाद को जितना बोझिल और नीरस काम माना जाने लगा है दरअसल यह उतना ही जिम्मेदारी वाला काम है पर दुर्भाग्यवश इस काम में लगे लेखक शब्दसः अनुवाद कर अर्थ का अनर्थ करते आ रहे हैं और शायद करने में लगे रहेंगे|

भाषा अपने आप में सिर्फ विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है तो जब तक ऐसे शब्दों का सहारा लेकर आप अपनी बात दूसरे तक पहुंचा रहे हैं , और ऐसे पहुंचा रहे हैं कि सामने वाले को समझ में भी आ रहा है तो इसका उद्देश्य पूरा माना जाना चाहिए | ऐसे में क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध |

Monday, February 10, 2014

*किताब नहीं है यह , हम सबके बीते लम्हों की डायरी है*

रात के दो बज रहे हैं और इंजीनीयरिंग की पढाई कर रहा एक लौंडा यू ट्यूब पर सर्च बॉक्स में "Hindi Kavita" टाइप कर रहा है | जो पहला वीडियो खुलता है, उसमें एक दूसरा डिग्रीधारी इंजीनियर बोलता है  "आप कविता नहीं लिखते , कविता आपको लिखती है "| पढ़ने वाला लौंडा कविता सुनाने वाले लड़के का मेल आई डी देखकर उसे सोशल नेटवर्किंग साइट पर सर्च करता है और कुछ सालों तक दोनों लाइक और कमेंट्स में मिलते रहते हैं |

तीन साल बाद कविता वाले दिव्य प्रकाश भय्या अब पुस्तक लेखक हो गए और वीडियो देखने वाले इस लड़के ने इनकी किताब दफ्तर में कूरियर से मंगा ली | अगली कुछ रातें मैंने इसकी कहानियों के नाम कर दीं| ' कथा संग्रह' जो कि इसका साहित्यिक जौनर हो सकता है पर सच में ऐसा कुछ है जिसे पढ़ आदमी अपने लड़कपन, जवानी और डेब्यू प्रेम की दुनिया में गोते लगा आये|





किरायेदार की कशमकश, लड़कपन की फंतासियां, प्यार के प्रयोग और रिश्तों के रंगों को कागज़ी कैनवास पर सजाती "Terms & Conditions apply" (Sorry ! नाम से पहले * का निशान लगाना भूल गया) यह किताब नहीं है हम सबके बीते दिनों की डायरी है| जिसमें बचपन के ट्यूशन में उस 'खास' का इन्तजार करती बेंच है, किराये की बिल्डिंग में पड़ोसन के साथ दो मग कॉफी है और मोहल्ले के चौराहे पर बने सैलून में जुम्मन हज्जाम की कहानियाँ भी |
कई कहानियाँ आपको बिल्कुल अपने स्कूल की मस्ती और कॉलेज कैम्पस का वह लेख जोखा याद दिलाएंगी, जो आपने कभी मन के पन्नों पर उकेरा था या खुद उभर गया था| तीन चार कहानियों को ग्रुप साहित्य के रूप में जाना जा सकता है | "आस्क एक्सपर्ट" ऐसे ही एक कहानी है जो पांच छ लौंडेनुमा लड़के ग्रुप में पढ़ें तो कई दिनों तक इसे याद कर हँसते रहेंगे | हम सबके स्कूल में एक ऐसी लड़की रही है जिसके बारे में क्लास के लड़के रोचक किस्से सुनाते आये पर उन किस्सों का सच दिव्य भय्या की कहानी "लोलिता" से ही पता चलता है|
वह लोग जो साहित्य का एक ख़ास मीटर हाथ में लेकर साहित्य को जांचते हों उनको हम पहले ही बोल देते हैं "यू आर NOT इनवाईटेड|"
कुछ कहानियाँ विजुअल सिक्वेंस जैसी हैं , जैसे परदे पर कोई फिल्म चली हो | एक शॉट से शुरू हुयी और बीच में कहीं वही शॉट फिर से आ गया... और कहानी फिर बढ़ने लगी| कथा साहित्य के नजरिये से यह नया प्रयोग है जो रूमानी भी है और रोमांचक भी |

हंसाते और पुराने दिनों की याद दिलाते दिलाते लेखक कभी सुलतान मिर्जा टाइप वन लाइनर मार जाता है| एक जगह लिखा है ".......अक्सर कम दूरी तय करने में ज्यादा समय लग ही जाता है | जैसे ट्रेन में एसी वाले डिब्बों की जनरल वाले डिब्बे से दूरी केवल कुछ डिब्बों की नहीं होती , कुछ सौ मीटर की नहीं होती , कई सालों की होती है |" वहीं एक और कहानी में सबसे बड़ा सच - "...वैसे भी दुनिया के आधे सच झूठ हैं ...और दुनिया के आधे झूठ सच |" फिर कहीं दिव्य लिखते हैं " .....फैसला हो गया था लेकिन हर बार की तरह जस्टिस रह गया था |" पहली कहानी की यह लाइन "......लगता है कि अगर दुनिया के सभी पागल अपनी कहानी सुनाने लगें तो शायद पागलखानों की जरूरत ही न पड़े| उनको अलग शायद इसलिए ही रखा जाता है ताकि उनकी कहानी किसी को पता ही न चल सके|"

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जो नौजवान अंग्रेजी के घिसे हुए कैम्पस लव स्टोरी फ़ॉर्मूला से उकता गए हों तो हिंदी में इस पर हाथ आजमाया जा सकता है | जरूर पसंद आयेगी बाकि तो Terms & Conditions apply

Thursday, December 19, 2013

गीत हैं ... गीतों का क्या


गीत कमाल के होते हैं । हमारे जीवन की किताब के अनेक पन्नों पर उभरे शब्द किसी न किसी गीत में जरूर नायक या नायिका के लबों से बयां होते दिखते हैं। बचपन में सोचता था कि गीत और संवाद नायक खुद ही लिखते होंगे। जब गीतकार नामक एक आदमी के बारे में सुना तो चौंक इस बात पर गया कि क्या कोई ऐसा आदमी भी हो सकता है जो हर तरह के हालातों पर कुछ न कुछ लिखना जानता हो मसलन ख़ुशी का भी, दुख, विरह, इश्क़ का और वह सब जो इंसान के जेहन के किसी कोने में झलकता हो और बाहरी दुनिया उसे इमोशन|
रोते हुए आते हैं सब.…हँसता हुआ जो जाएगा। यह पहला गीत रहा होगा जो दिल से याद हुआ। । कई बार क्लास में जब मैडम जी का पढ़ाने का मन नहीं होता था तो बच्चों से कुछ हुनर दिखाने को कहती थीं। " यू के जी -बी " की उस क्लास में हम यही गीत गुनगुना देते थे। तब सिर्फ बाइक पर बैठा अमिताभ मन में उभरता था । बड़े होने पर जब इसकी शुरूआती पंक्तियों के फलसफे को जाना तब पता चला कि क्या मज़ेदार कॉन्सेप्ट दे गए अंजान जिनके बेटे समीर ने साजन और कुछ कुछ होता है के गीत लिखे और नब्बे के दशक के सारे हित गानों के पीछे उनके ही बोल थे|

 इस देश में कौन ऐसा होगा जो अकेला होने पर, खुश होने पर , दुखी होने पर गाने नहीं सुनता होगा या गुनगुनाता नहीं होगा । गीत, ग़ज़ल, गाने, रॉक सॉंग्स, कव्वाली, हेवी मेटल या कुछ भी। मन के गहरे कैनवास पर अजीब कलाएं उभार देने वाले होते हैं गीतों के बोल | पुराना टेप जब ठप हो गया तब टू इन वन से लेकर वॉकमैन तक कितने नए साथी बने। क़ुछ चाइना मेड तो कुछ नेपाल से रिश्तेदारों के हाथों लाये गए। पांचवी में रहे होंगे तब , जेब में वॉकमैन और कानों पर बेतरतीबी से ईयर फोन लटकाये घूमते थे तो खुद को सलमान खान से कम नहीं समझते थे ।



 फिर आ गया आर्यन , सिल्क रूट , यूफोरिया | आँखों में तेरा ही चेहरा , दीवाना … मैं हूँ दीवाना तेरा, … डूबा डूबा रहता हूँ आँखों में तेरी । उस दौर के चैनलों पर पॉप एल्बमों के ट्रेलर दिखते थे और नए से नए एल्बम की कैसट तुरंत हमारे घर पर होती थी। तब दुकानें सजी होती थें कैसेट की , उन पर धमाकेदार क़िस्म का एक डेग होता था जिस पर कभी अल्ताफ रज़ा या सोनू निगम गुनगुना रहे होते थे और उधर से हर आने जाने वाला उन्हें सुन रहा होता था ।

 यू ट्यूब और टोरेंत्ज की ललकती आग में इन सब की आहुति दे दी गयी । सॉन्ग्स डॉट पीके ने लोगों को वह सब पहुंचाना शुरू कर दिया जो उन्हें पैसे खर्च कर बाजार से लाना पड़ रहा होता था । क्या यह सही नहीं है कि जैसे जैसे गीतों के घर तक पहुँचने के रास्ते आसान हो गए वैसे वैसे इनके बोल भी आसान होते गए। न "एहसान तेरा होगा मुझ पर" न ही " आजा सनम मधुर चांदनी में हम"। गीतों के स्तर के गिरने या चढ़ने की बहस पुरानी है। पार्टी ऑल नाइट .... साड़ी के फॉल से …भाग भाग डी के … तमंचे पे डिस्को .. जैसे गीतों का होना जरूरी है या गैर जरूरी , इस पर बहस करने से बेहतर है कि यह जानें कि इन गानों के कामयाब होने पर भी सुनने वालों का हाथ है| सिनेमा की खूबसूरती इस ही में है कि इसमें यो यो का "दिल है आज पानी पानी " भी है और गुलज़ार का "दिल का मिज़ाज इश्क़िया" भी और दोनों साथ साथ लोगों के लबों पर हैं|


Sunday, November 20, 2011

आ चलें चाँद की सैर पर ....


एक शाम वीरू काम से लौट कर अपने घर में टीवी पर समाचार देख रहा था। हर चैनल पर मारपीट, हत्‍या, लूटपाट और सरकारी घोटालों के अलावा कोई ढंग का समाचार उसे देखने को नही मिल रहा था। इन खबरों से ऊब कर वीरू ने जैसे ही टीवी बंद करने के रिमोट उठाया तो एक चैनल पर ब्रेकिंग न्‍यूज आ रही थी कि वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्‍हें चांद पर पानी मिल गया है। इस खबर को सुनते ही वीरू ने पास बैठी अपनी पत्‍नी बसन्‍ती से कहा कि अपने शहर में तो आऐ दिन पानी की किल्‍लत बहुत सताती रहती है, मैं सोच रहा हूं कि क्‍यूं न ऐसे मैं चांद पर ही जाकर रहना शुरू कर दूं।

बसन्‍ती ने बिना एक क्षण भी व्‍यर्थ गवाएं हुए वीरू पर धावा बोलते हुए कहा कि कोई और चांद पर जायें या न जायें आप तो सबसे पहले वहां जाओगे। वीरू ने पत्‍नी से कहा कि तुम्‍हारी परेशानी क्‍या है, तुम्‍हारे से कोई घर की बात करो या बाहर की तुम मुझे हर बात में क्‍यूं घसीट लेती हो। वीरू की पत्‍नी ने कहा कि मैं सब कुछ जानती हूं कि तुम चांद पर क्‍यूं जाना चाहते हो? कुछ दिन पहले खबर आई थी चांद पर बर्फ मिल गई है और आज पानी मिलने का नया वृतान्‍त टीवी वालों ने सुना दिया है। मैं तुम्‍हारे दारू पीने के चस्‍के को अच्‍छे से जानती हूं। हर दिन शाम होते ही तुम्‍हें दारू पीकर गुलछर्रे उड़ाने के लिये सिर्फ इन्‍हीं दो चीजों की जरूरत होती है। अब तो सिर्फ दारू की बोतल अपने साथ ले जा कर तुम चांद पर चैन से आनंद उठाना चाहते हो।

वीरू ने बात को थोड़ा संभालने के प्रयास में बसन्‍ती से कहा कि मेरा तुम्‍हारा तो जन्‍म-जन्‍म से चोली-दामन का साथ है। मेरे लिये तो तुम ही चांद से बढ़ कर हो। बसन्‍ती ने भी घाट-घाट का पानी पीया हुआ है इसलिये वो इतनी जल्‍दी वीरू की इन चिकनी-चुपड़ी बातों में आने वाली नही थी। वीरू द्वारा बसन्ती को समझाने की जब सभी कोशिशें बेकार होने लगी तो उसने अपना आपा खोते हुए कहा कि चांद की सैर करना कोई गुडियों का खेल नही।
वैसे भी तुम क्‍या सोच रही हो कि सरकार ने चांद पर जाने के लिये मेरे राशन कार्ड पर मोहर लगा दी है और मैं सड़क से आटो लेकर अभी चांद पर चला जाऊगा। अब इसके बाद तुमने जरा सी भी ची-चुपड़ की तो तुम्‍हारी हड्डियां तोड़ दूंगा। वैसे एक बात बताओ कि आखिर तुम क्‍या चाहती हो कि सारी उम्र कोल्‍हू का बैल बन कर बस सिर्फ तुम्‍हारी सेवा में जुटा रहूं। तुम ने तो कसम खाई हुई है कि हम कभी भी कहीं न जायें बस कुएं के मेंढ़क की तरह सारा जीवन इसी धरती पर ही गुजार दें।

बसन्‍ती के साथ नोंक-झोंक में चांद की सैर के सपने लिए न जाने कब वीरू नींद के आगोश में खो गया। कुछ ही देर में वीरू ने देखा कि उसने चांद पर जाने की सारी तैयारियां पूरी कर ली है। वीरू जैसे ही अपना सामान लेकर चांद की सैर के लिये निकलने लगा तो बसन्‍ती ने पूछा कि अभी थोड़ी देर पहले ही चांद के मसले को लेकर हमारा इतना झगड़ा हुआ है और अब तुम यह सामान लेकर कहां जाने के चक्‍कर में हो? वीरू ने उससे कहा कि तुम तो हर समय खामख्‍वाह परेशान होती रहती हो, मैं तो सिर्फ कुछ दिनों के लिये चांद की सैर पर जा रहा हूॅ। वो तो ठीक है लेकिन पहले यह बताओ कि जिस आदमी ने दिल्‍ली जैसे शहर में रहते हुए आज तक लालकिला और कुतुबमीनार नहीं देखे उसे चांद पर जाने की क्‍या जरूरत आन पड़ी है?
इससे पहले की वीरू बसन्‍ती के सवालों को समझ कर कोई जवाब देता बसन्‍ती ने एक और सवाल का तीर छोड़ते हुए कहा कि यह बताओ कि किस के साथ जा रहे हो। क्‍योंकि मैं तुम्‍हारे बारे में इतना तो जानती हूं कि तुममें इतनी हिम्‍मत भी नहीं है कि अकेले रेलवे स्टेशन तक जा सको, ऐसे में चांद पर अकेले कैसे जाओगे? मुझे यह भी ठीक से बताओ कि वापिस कब आओगे?


बसन्‍ती के इस तरह खोद-खोद कर सवाल पूछने पर वीरू का मन तो उसे खरी-खरी सुनाने को कर रहा था। इसी के साथ वीरू के दिल से यही आवाज उठ रही थी कि बसन्‍ती को कहे कि ऐ जहर की पुड़िया अब और जहर उगलना बंद कर। परंतु बसन्‍ती हाव-भाव को देख ऐसा लग रहा था कि बसन्‍ती ने भी कसम खा रखी है कि वो चुप नही बैठेगी। दूसरी और चांद की सैर को लेकर वीरू के मन में इतने लड्डू फूट रहे थे कि उसने महौल को और खराब करने की बजाए अपनी जुबान पर लगाम लगाऐ रखने में ही भलाई समझी। वीरू जैसे ही सामान उठा कर चलने लगा तो बसन्‍ती ने कहा कि सारी दुनियां धरती से ही चांद को देखती है तुम भी यही से देख लो, इतनी दूर जाकर क्‍या करोगे? अगर यहां से तुम्‍हें चांद ठीक से नहीं दिखे तो अपनी छत पर जाकर देख लो। बसन्‍ती ने जब देखा कि उसके सवालों के सभी आक्रमण बेकार हो रहे है तो उसने आत्‍मसमर्पण करते हुए वीरू से कहा कि अगर चांद पर जा ही रहे हो तो वापिसी में बच्‍चों के वहां से कुछ खिलाने और मिठाईयां लेते आना।

वीरू ने भी उसे अपनी और खींचते हुए कहा कि तुम अपने बारे में भी बता दो, तुम्‍हारे लिये क्‍या लेकर आऊ? बसन्‍ती ने कहा जी मुझे तो कुछ नहीं चाहिये हां आजकल यहां आलू, प्‍याज बहुत मंहगे हो रहे है, घर के लिये थोड़ी सब्‍जी लेते आना। कुछ देर से अपने सवालों पर काबू रख कर बैठी बसन्‍ती ने वीरू से पूछा कि जाने से पहले इतना तो बताते जाओ कि यह चांद दिखने में कैसा होता है? अब तक वीरू बसन्‍ती के सवालों से बहुत चिढ़ चुका था, उसने कहा कि बिल्‍कुल नर्क की तरह। क्‍यूं वहां से कुछ और लाना हो तो वो भी बता दो।
बसन्‍ती ने अपना हाथ खींचते हुए कहा कि फिर तो वहां से अपनी एक वीडियो बनवा लाना, बच्‍चे तुम्‍हें वहां देख कर बहुत खुश हो जायेंगे। कुछ ही देर में वीरू ने देखा कि वो राकेट में बैठ कर चांद की सैर करने जा रहा है। रास्‍ते में राकेट के ड्राईवर से बातचीत करते हुए मालूम हुआ कि आज तो अमावस है, आज चांद पर जाने से क्‍या फायदा क्‍योंकि आज के दिन तो चांद छु्ट्टी पर रहता है।

इतने में गली से निकलते हुए अखबार वाले ने अखबार का बंडल बरामदे में सो रहे वीरू के मुंह पर फेंका तो उसे ऐसा लगा कि जैसे किसी ने उसे चांद से धक्‍का देकर नीचे धरती पर फैंक दिया हो। वीरू की इन हरकतों को देखकर तो कोई भी व्‍यक्‍ति यही कहेगा कि जो मूर्ख अपनी मूर्खता को जानता है, वह तो धीरे-धीरे सीख सकता है, परंतु जो मूर्ख खुद को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता हो, उसका रोग कोई नहीं ठीक कर सकता। ....

Monday, July 11, 2011

इस दौड़ में सिर्फ अश्विनी ही क्यों हारे ....?????





कुछ महीनों पहले जब अश्विनी की कहानी को यहाँ ब्लॉग पर साझा किया था तो पाठकों ने उसे भारतीय एथलेटिक्स की नई उम्मीद माना था | पर "खेल में किस्मत का चाबुक कब चल जाए" ,कहा नहीं जा सकता|भारतीय एथलीट्स पर एकदम से आई डोपिंग की आंधी अश्विनी अक्कुंजी चिदानान्दा की भी कामयाबी उड़ा ले गयी है| पहले उसने राष्ट्रमंडल खेलो में 4X400m रिले में तीसरे लेग में दौडकर स्वर्ण पदक जितवाया, और फिर एशियाई खेलों में 400m हर्डल्स के साथ साथ 4X400m रिले में स्वर्ण पदक जीतकर ओलम्पिक में भारतीय एथलेटिक्स कि आस जगाई ..और 'गोल्डन गर्ल' कहलाई | इस करिश्मे के बाद देश अश्विनी को सर पर बिठाए था पर चंद महीनों की कामयाबी के बाद अब लोग उसे hall of shame में शामिल कर रहे हैं|


खेल मंत्रालय ने पूरे प्रकरण के बाद एथलेटिक्स के कोच यूरी ओगरोदोनिक को बर्खास्त कर खुद को "एक्टिव" दिखाने का प्रयास तो कर ही लिया| विदेशी कोच यूरी ओगरोदोनिक को उनके पद से हटाया दिया गया और राष्ट्रीय खेल संस्थान (एनआईएस) के दो सहायकों को निलम्बित कर उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी कर मंत्रालय इस प्रकरण पर पर खुद को गंभीर और सख्त दर्शाने का स्वांग रच चुका है| पर इस पूरी उठा पठक के बाद भी बहुत से सवाल पूछे जाना बाकी हैं|



उक्रेन से आये एथलेटिक्स कोच यूरी ओगरोदोनिक के बयानों को देखें तो वो भी अपने आप को निर्दोष बता रहें हैं | कोच साहब का कहना है कि उन्हें नहीं मालूम कि प्रशिक्षण केंद्र के अंदर प्रतिबंधित दवाएं कहाँ से आयीं? ओगरोदोनिक का अगला कथन और भी हास्यास्पद है, जिसमे उन्होंने कहा है कि वो खिलाड़ियों के कोच हैं , कोई "डॉक्टर " नहीं जिन्हें फ़ूड सप्लेमेंट्स में इस्तेमाल किये जाने वाले साल्ट्स की जानकारी हो| कोच यूरी ने नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स NIS पर भी सवाल उठाये हैं| उन्होंने NIS में खिलाड़ियों के लिए फ़ूड सप्लेमेंट्स कि कमी का जिक्र किया है और कहा है कि इस कमी के कारण ही उन्हें खिलाड़ियों के लिए बाहर से यह सप्लेमेंट्स लाने पड़े |यह कोच यूरी ओग्रोद्निक ही थे जो चीन से फ़ूड सप्लेमेंट्स लाये|साथ ही बाद में एन आई एस परिसर के बाहर स्थानीय बाजार से भी अन्य सप्लेमेंट्स खिलाडियों को दिए|

जब यह साफ़ है कि खिलाड़ियों ने वही खाद्य पदार्थ लिए जो उन्हें कोच ने उन्हें मुहैया करवाए थे तो खिलाड़ियों को इस शर्मिंदगी की दौड़ में क्यों शामिल किया जाए ? देश में खिलाड़ियों के लिए विशेष तौर पर तैयार किये गए "स्पोर्ट्स मेडिसिन सेंटर" का ना होना भी खिलाड़ियों को अनजाने में डोपिंग के गर्क में धकेल देता है|

इस सबके साथ भारतीय एथलीट्स की प्रशिक्षण भूमि एन आई एस पटियाला की भूमिका को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए| यह अपने आप में एक चिंता का विषय है कि जो परिसर देश के अनेक खिलाडियों को ओलम्पिक के लिए तैयार कर रहा है वहाँ खिलाड़ियों के लिए आवश्यक सप्लेमेंट्स ''आउट ऑफ स्टॉक'' थे| इतना ही नहीं चीन से आयातित सप्लेमेंट्स की जब परिसर में मौजूद चिकित्सकों से जांच करवाई गयी थे तब उनको इसमें कोई प्रतिबंधित साल्ट नहीं मिला |कैसे प्रतिबंधित साल्ट्स से युक्त बाहर से आये सप्लेमेंट्स परिसर में प्रवेश कर जाते हैं यह भी एक अहम सवाल है|



हर बार की तरह ही इस बार भी डोपिंग की इस रेस में एथलीट्स ही पिछड़ गए| खिलाड़ियों को सप्लेमेंट्स और अन्य जरूरी सामग्री उपलब्ध कराने में कोच, फेडरशन, प्रशिक्षण संस्थान का उत्तर दायित्व कहीं ज्यादा है| कोच का लापरवाह रवय्या , एन आई एस के अधिकारियों की शिथिलता और फेडरेशन के प्रशासन में खामी इस प्रकरण में खिलाड़ियों से ज्यादा जिम्मेदार हैं| डोपिंग की इस चिंगारी से सिर्फ खिलाड़ियों के खेमे में आग लगे और इसके पीछे जिम्मेदार लोग बच कर निकल जाएँ तो यह भारतीय खेल (खासतौर पर एथलेटिक्स) की उम्मीदों को राख कर देगी |

Thursday, February 3, 2011

ये इंडिया का चटखारा है दोस्त ...


ये इंडिया का चटखारा है दोस्त ...
जमघट से भरी सड़क में फसी हुयीं गाडियां ...गाड़ियों के बीच कहीं फसे हुए लोग ..और इन्हीं लोगों के बीच कहीं जगह बनाया हुआ वो ठेला ...जिस पर हम और आप अक्सर एक देसी चटखारे का एहसास करने जाते हैं ...
एक ओर वो दुनिया जहाँ कांच और शीशों से घिरे हुए वातानुकूलित कमरों में आदमी अपने देसी अक्स को नहीं देख पाता और दूसरी ओर वो दुनिया जहां बाज़ार के शोर में, खुले आकाश के नीचे भी एक सुकून है | वो दुनिया जहाँ ठेठ देसी होने का अहसास है, स्वाद है ,चटखारा है, और खट्टे मीठे के बीच एक जंग छिड़ी हुयी है |

किसी कॉलेज के सामने लगे एक गोल गप्पे के ठेले पर जाकर देखिये | लड़की कॉलेज आने पर क्लास में जाए न जाए यहाँ जरूर सहेलियों के साथ नज़र आ जायेगी | गोल गप्पों से लड़कियों का इश्क होता ही ऐसा है | माथे से गिरकर गालों को चूमती दो लटें ..उन्हें उँगलियों से कान के ऊपर सरकाना.. और फिर गोल गप्पे खाने का सिलसिला शुरू हो जाता है| कई कॉलेजों के बाहर आशिकों ने इस दृश्य में अपनी शरीक ए हयात ढूंढ ली |

हमारी गोल गप्पों को गप करने की पूरी प्रक्रिया भी एक तरह का दर्शन है जिसमे मानव स्वभाव का अक्स अच्छी तरह देखा जा सकता है |जीभ के आखिरी से आखिरी टेस्ट बड पर भी अपनी छाप छोड़ते गोल गप्पे लडको को भी अपने चटखारे का कायल बना लेते हैं |



पहले गोल गप्पे से शुरू हुआ सिलसिला टेस्ट मैच की तरह चलता है |बीच बीच में नए ट्विस्ट आते रहते हैं | ओपनिंग के दौरान ,ठेला स्वामी से आलू या छोले ज्यादा डालने को कहना | फिर धीरे धीरे आगे बढते हुए उसमे मीठी सौंठ भी लगवा लेना | जीभ के तीखा हो जाने के बाद ,परोसने वाले का वह सवाल “भय्या बस”? पारी यूँही घोषित नहीं होती |उसका यह पूछना और जवाब देना ..”नहीं भय्या और लगादो”| किस्से की इन्तेहाँ यहीं नहीं होती |हर बार गोल गप्पे खाने के बाद भी उस से पानी की मांग कर देना ही पारी को समाप्त करता है|

अभिषेक बच्चन भले ही अपनी दिल्ली-6 में यह डिस्कवर न कर पाए हों ,आप अपनी दिल्ली-6 के बल्ली मारान(चांदनी चौक)जाकर जायका लीजिए | तिराहे पर लगी ठेलों की कतार में किसी से भी गोल गप्पों की कीमत पूछिए | दस के चार बताएगा | हर गोल गप्पा करारा इतना कि दाँतों के बीच जब टूटे तो आवाज़ से लगे कि बिस्किट चबा रहे हों|

जहां विदेशी संस्करण ने हर भारतीय व्यंजन के राज में सेंध लगा डाली | मुंबई के बड़ा पाव की जगह बरगर ने ले ली ,पराठे की जगह पीज्जा आ गया और समोसों कि जगह पैटीज़ की सत्ता ने अस्तित्व ढूंढ लिया ,वहीँ गोल गप्पों ने आज भी अपने ठेठ देसिपने को खुद से जुदा नहीं होने दिया | सिर्फ इन्ही को देखकर या कहिये खाकर कहा जा सकता है कि ये इंडिया का चटखारा है दोस्त |

Monday, December 13, 2010

शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी छोड़िये..अश्विनी की कहानी पढ़िये|


पूरा देश मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी में मस्त है लेकिन मंगलौर से 100 किलोमीटर दूर जन्सेल जाने वाले रास्ते पर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है|इसमें अश्विनी नाम की एक लड़की को शुभकामनाएं दी गयी हैं| सिद्दपुर गाँव के किसानो,मजदूरो,और अध्यापकों ने मिलकर ही चंदा किया और इस बोर्ड को यहाँ लगवाया| यही लोग मिलकर पर्चे बाँट रहे हैं जिसमें अपने गाँव की इस नयी नायिका की तस्वीर है और शुभकामना सन्देश छपा है| “अश्विनी अक्कुंजी चिदानान्दा” ,यही नाम है यहाँ की नायिका का जिसने पहले राष्ट्रमंडल खेलो में 4X400m रिले में तीसरे लेग में दौडकर नाइजेरिया की धाविका को पछाड कर बढत बनायी और स्वर्ण पदक जितवाया| और फिर एशियाई खेलों में 400m हर्डल्स व 4X400m रिले में दो स्वर्ण पदक जीतकर न सिर्फ अपने गाँव सिद्दपुर को बल्कि पूरे देश को गर्व करने का मौका दिया है| ५०० लोगों की आबादी वाले जन्सेल गाँव की ओर जाती हुयी कच्ची सड़क पर अपने परिवार कि १२ गायों को चराते चराते अश्विनी ने दौडना सीख लिया| और जब ऐसे दौड़ते दौड़ते रुकी तो चीन में दो स्वर्ण पदक हाथ में आ चुके थे| यहाँ के विधायक लक्ष्मीनारायण अब वादा कर रहे हैं कि अब इस कच्ची सड़क को पक्का कराया जाएगा ताकि अब अश्विनी अपनी नई गाडी से गाँव तक वापस आ सके| उसका परिवार अपनी साल भर की मेहनत से सिर्फ ६० कुइंटल चावल की पैदावार कर पता है| और यही ६० कुइंटल चावल इस परिवार की कमाई का जरिया बनता है| तंगी के कारण ही ये परिवार अक्टूबर में अपनी लाडली को राष्ट्रमंडल खेलो में रिले दौड में भागते हुए देखने के लिए दिल्ली नहीं जा पाया था| राष्ट्रमंडल खेलो में जब उसने रिले में स्वर्ण जीता था तो मिक्स्ड ज़ोन में मेरे दीदी कहकर संबोधित करने पर वो भावुक हो गयी थी| एक पत्रकार को बताया कि इस वक्त वो सबसे ज्यादा अपनी छोटी बहनों को ही याद कर रही हैं जो यहाँ नही आ पायीं| अश्विनी अब अपनी आदर्श पी टी उषा का राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोडना चाहती है और भारत को ओलम्पिक में पदक दिलाना चाहती है| और ऐसा करने के लिए बीच में आने वाली सभी “हर्डल्स” को यह “हर्डल्स धाविका” आसानी से पार कर जायेगी|

दिल्ली मुंबई और अन्य बड़े शहरों में जहाँ युवा लड़के लड़कियां टेनिस और क्रिकेट के ग्लैमर में खोकर अपना करियर बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीँ छोटे गाँव और कस्बों की कहानी कुछ और है| रायबरेली की सुधा ..केरल की प्रीजा श्रीधरन ..और जन्सेल की अश्विनी ने गरीबी में भी अपने गाँव से एशियन खेलो तक की दौड़ लगा ली| इन्होने किसी खेल में करियर बनाने के लिए दौडना शुरू नहीं किया| किसी ने अपने स्कूल तक पहुचने के लिए १० किमी तक दौड़ लगायी तो कोई पानी भरने के लिए रोज ७ किलोमीटर तक पैदल चली| अश्विनी ,कविता रावत और प्रीजा जैसी लड़कियों ने अपने परिवार की कमज़ोर आर्थिक स्थिति और सुविधा के अभाव को ही अपनी ताकत बना लिया| यदि यह भी किसी महानगर के कथित 'अपर मिडल क्लास' में पली बड़ी होती तो “why should boys have all the fun??” चिल्लाकर एक्टिवा और स्कूटी रौंद रही होती| रोज की दिनचर्या में शामिल लंबी दूरी तय करने वाली गाँव की पगडंडियाँ ही इनका “प्रेक्टिस ट्रेक” बनी|

बचपन में अश्विनी के पिता ने गांववालों के विरोध के बावजूद विद्यानगर खेल अकादमी ,बंगलौर भेज दिया| जहाँ से एक साल की ट्रेनिंग के बाद टाटा एथलेटिक अकादमी जमशेदपुर चली गयी |फिर भारतीय रेलवे में टिकेट कलेक्टर की नौकरी भी मिल गयी |अब रेलवे ने ही अश्विनी को राष्ट्रमंडल खेलो में जीत के बाद १५ लाख का पुरस्कार दिया है |जन्सेल के बाशिंदों में भी अब एथलेटिक्स को लेकर नयी उमंग जागी है| गाँव में एक ही स्कूल है और इस स्कूल के सब बच्चे अब धावक ही बनाना चाहते हैं |माँ बाप भी अब उन्हें प्रोत्साहन देने को तैयार हैं अश्विनी की कहानी अब आप तक पहुँच चुकी है आप भी मेरे साथ उसे सलाम करने को तैयार हो जाइए| अश्विनी को सलाम|

Sunday, August 22, 2010

यह दिल्ली है मेरे यार .....


रोज़ अपने मेल चेक करता हूँ तो दो तीन सहपाठी अपने नए लेख का लिंक मुझ तक पहुंचा देते हैं । उनकी बेबाक राय और सृजनशक्ति से प्रेरित होकर मैं भी सोचता हूँ की आज ब्लॉग पर कुछ नया पोस्ट करूँगा। दिल्ली में अपने पिछले एक महीने में मकान ढूँढने के अनुभवों को दोस्तों के साथ बाटने से बेहतर क्या हो सकता है। जब आया तो ऊंची इमारतें और सडको पर रेंगती गाड़ियां मेरा स्वागत करती नज़र आयीं। इसी का नाम दिल्ली है। छोटे शहर से आने वाले हर नौजवान के मन में ऐसी ही तस्वीरें सबसे पहले घर करती होंगी ।फिल्मो में देखता था की जब गाँव का लड़का शहर पहुँचता है तो सबसे पहले ऊंची ऊँची इमारतों को देखकर फ्रीज़ हो जाता है । जैसे इन इमारतों से कहीं ऊंचे उसके ख्वाब हैं जिन्हें संग अपने बैग में लादे वो शहर तक आ गया है। यूँ तो दिल्ली के कोने कोने में रिश्तेदारों की एक जमात भरी पड़ी है जो अब तक दिल्ली में प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने में काम आती रही । पर अब मामला एक दिन या दो दिन का नहीं ,एक साल का है । भारतीय समाज में रिश्तेदारों के यहाँ लम्बे वक्त तक रुकना एक अपराध से कम नहीं माना जाता।यह वही समाज है जो "अतिथि देवो भवः" का सूत्र दुनिया के सामने परोसता है। पर जब अतिथि महोदय की कृपा अधिक समय तक बरसने लगे तो उसका मन ही मन बहिष्कार किया जाने लगता है । खैर लेख का मकसद अनुभवों को बांटना है ,आलोचना परोसना नहीं।
ब्लू लाइन बसों की भीड़ ,हर वक्त कोलाहल पैदा करती गाड़ियां और दनदनाती हुई मेट्रो ..सब पहले नहीं देखा था । बचपन में एक बार दिल्ली आया था तो इंडिया गेट पर एकघंटा खड़ा होकर कौतुहल से गाड़ियों को निहारता रहा । जितनी देर में कोई गाडी पसंद आती उस से पहले ही सनसनाती हुई आँखों के सामने से ओझल हो जाती। आज गाड़ियों की संख्या अधिक हो गयी है सनसनाती गाड़ियाँ सिर्फ कुछ हिस्सों में ही दिख रही हैं ।कुछ दिन अतिथि सुख भोग लेने के बाद अपना आशियाँ कहीं और ढूँढने का मन बना लिया । "कटवारिया सराय में ही लेना वहां सस्ता मिलेगा। "मुनिरका ही सबसे नज़दीक है वहां बाज़ार भी है,वही लेना "ऐसी ही सलाह दोस्त देते रहते ।एक दोस्त को लेकर हलकी बूंदा बांदी में यह महा खोज यात्रा आरम्भ की। कटवारिया से ही श्री गणेश किया गया । सोचा घर घर जाकर पूछेंगे की मकान खाली है ??लेकिन ऐसा करना कितना सफल होगा इसकी उम्मीद नहींथी।
घर के दरवाजों को खटखटाने पर जो महिला बाहर निकल कर आती ,सबसे पहले ऊपर से नीचे देखती जैसे कोई अभियुक्त हों। फिर पूछती कहन के हो ,क्या करते हो ,फॅमिली वाले हो ??यह आखिरी सवाल जरा अजीब लगता । फिर सोचा शायद बड़ी शेव के कारण इन्हें मैं सिंगल नहीं लगा । पूरा इंटरव्यू लेने के बाद यह आंटी कह देती की नहीं खाली नहीं है कोई कमरा । लेकिन जो भी मना कर रहा था उनमे एक बात कॉमन थी ।हर कोई उम्मीद जगा रहा था .."अगली एक को खाली हो जायेगा "..."१० तारीख को आजाना बेटा तब मिल जायेगा" ..."खाली होने ही वाला है"। किसी ने बताया ,अन्दर जाओ वहां दूकान पर पता करो ..मिल जाएगा । "दुकान " पर ''मकान" मिल जाएगा ऐसा कहीं नहीं सुना था । जैसे ही पहुंचे तो उस पर एक कागज़ चस्पा किया हुआ था जिसमे सिंगल रूम के अवैलेबल होने की बात लिखी थी । तंग गलियों से गजरते हुए खोजयात्रा एक ठिकाने पर आकर रुकी । बहुत ऊँची सी इमारत थी जैसे माचिस के छोटे छोटे डब्बों को एक जैसा रंग कर एक के ऊपर एक सजा दिया हो। ऊँची इमारत में दूकान वाला लड़का बसेमेंट में ले जाने लगा । वहीँ एक खाली कमरा था । खोला तो लगा जैसे बरसो से कमरा खुद को अकेला महसूस कर रहा था और उसका सारा अकेलापन एक अजीब से दुर्गन्ध की शक्ल अख्तियार कर चुका है । वो घुटन और गंध हमारे अन्दर आने का विरोध कर रही थी । पुरानी फिल्मो में ऐसे ही कमरों में खलनायक नायक की प्रेमिका को अगवा कर छुपा लेता था । हम दोनों ही नाक मुह सिकोड़ने लगे । किराया पूछा तो बोला २५०० रुपया ।कमरे का दरवजा खोलते ही दुसरे किरायेदार का गुसलखाना सामने था । मकान के सामने बस इतनी ही जगह थी की सडक पर से एक साइकिल निकल जाए । इतनी ऊंची बिल्डिंग में भी बसेमेंट नसीब हुआ था हमे ।दोनों चल पड़े । उपर वाले कमरे की अँधेरी खिड़की से एक लड़की झाँक रही थी ,मैंने मुड़कर देखा तो पर्दा गिरा दिया । ज्यादातर नौजवान कमरा देखने से पहले आस पास की रहने वाली लडकियों को ही देखते हैं और फिर फैसला करते हैं ।
फिर अगली गली में एक मकां के बाहर बोर्ड दिखा तो उस पर दोस्त का सर नेम मेल खा गया ।सामने वाले का सर नेम अपने से मिलता हो तो एक नयी उम्मीद जग जाती है । बाहर ही एक आंटी बैठी थी । उनसे पूछ लिया कमरे के लिए । हमे मालूम था, एक बार फिर वही इंटर व्यू शुरू हो जाएगा इसलिए जल्दी जल्दी निपटाने की कोशिश की। एक काम करने वाली महिला बगल में खडी थी उसने बताया सामने उपर वाला खली है । आंटी उस पर बरस पड़ी । अनजाने में ही एक वाक् युद्ध वहां आरम्भ हो गया । हम खिसक लिए। और बताये गए मकां पर पहुचे । एक गुफानुमा जीने से उपर चढ़ हम कमरे तक पहुंचे । सामने ही एक और किरायेदार आंटी थीं जो मकां मालिक की अनुपस्थिति में मालिक की भूमिका निभा रही थीं । पता चला की जो आंटी नीचे लड़ रहीं थी उनसे इन की नहीं बनती । वो इनका कमरा उठता हुआ नहीं देख सकती ।महिलाओं की लड़ाई होती ही ऐसी है ,पूरी तरह निभायी जाती है । फिर शुरू वही सारे सवाल । अच्छा लगा की इसबार फॅमिली वाला सवाल नहीं पूछा । पूरी कोशिश की थी सिंगल दिखने की । किराये की बात, बिजली का बिल और सारे प्रतिबंधो का खुलासा उन्होंने पहली मुलाकात में कर दिया । "ज्यादा दोस्त घर पर नहीं आने चाहिए ...देर रात को घर पर मत लौटना ..लड़की तो मकां के आस पास तक नहीं आने चाहिए ..दोस्तों का जमघट घर पर ज्यादा न लगे"..और न जाने कितने ही ऐसे कायदे क़ानून उन्होंने गिना दिए । मुझे कमरे की जरूरत थी । सारी शर्ते एक सुर में स्वीकार लीं । बाद में देखा जायेगा की क्या मानना है और क्या नहीं । आंटी किरायेदार ही थी इसलिए उन्होंने हमारी किराए कम करने की गुहार को सहर्ष स्वीकार कर लिया । हम अपने सामने वालो के किसी एक स्वरुप को अपने से रिलेट कर लेते हैं और एक आत्मीयता जग जाती है ।आंटी के दिल में जगी यही आत्मीयता हमारे लिए किराया कम करा गयी । मकां मालिक को फ़ोन पर किराया बताया गया । उसे किराया कम लगा ,उसने कहा कल तक बताएँगे।इतनी जद्दोजहद के बावजूद भी एक कमरा हाथ नहीं लगा । इसी दुःख के साथ वहां से चल दिए । शाम का समय था ज्यादातर महिलायें और उनकी बेटियाँ घरो की छतो और बालकोनी में मौसम का आनद लेने आई थी । नीचे होने वाली हर गतिविधि पर निगाहें रखे हुए । हम निकले तो पूरी कालोनी की नज़र हम पर ही फोकुस थीं । आंटी और उनकी बेटियाँ ताड़ रही थी । थोडा असहज लगने लगा । कैमरा कोन्शिअस होना सुना था आज महिला कोन्शिअस भी होना सीख लिया।सभ्य पुरुष की यही निशानी है। बसते को काँधे पर लादे और निगाहें नीचे कर चप्पलो की चप् चप् के साथ कीचड उड़ाते हुए निकल लिए इस उम्मीद के साथ की शायद ये कमरा तो मिल ही जाये कल तक। खोज यात्रा का एक दिन तो ख़तम हुआ और अनेक पडावो से गुजर लिए। पर मंजिल अभी दूर ही थी। महानगर में एक छत ढूंढना इतना रोचक रहेगा सोचा नहीं था। सुनते थे "दिल्ली दिलवालों की है'। यहाँ बस पहले कोई घर में जगह दे दे ...दिल में जगह अपने आप बना लूँगा।

Sunday, January 10, 2010

एक प्याला चाय....


मैक डोनाल्ड और पिज्जा हट की चका चौंध की ओर भागने वाली इस दुनिया में आज भी कहीं ऐसा कोना है जहाँ आपको सर और मैडम कहते नौजवान और नव युवती नहीं दिखेंगे और ना ही आपको खाने के लिए एक लम्बा किताबनुमा मेनू थमा दिया जायेगा|आपने कभी न कभी तो अपने दोस्तों ,अपने साथियों या अपने सहकर्मियों के साथ कहीं न कहीं किसी एक दूर छुपे हुए कोने में एक बरसाती की छांव के तले बनी एक चाय की दूकान पर एक प्याला चाय तो पी ही होगी |.मैं भी यहाँ अपने इसी अनुभव जो की अब एक दिनचर्या का अहम् हिस्सा भी बन चुका है पर अपना लेख लिख रहा हूँ |मेरे भी इंजीनियरिंग कॉलेज से कुछ क़दमों की दूरी पर एक ऐसी ही बरसाती की छावं तले एक चाय की दूकान पर हमेशा एक जमावड़ा लगा रहता है| इंजीनियरिंग ,डिप्लोमा,कला,विज्ञान के छात्रो से लेकर स्थानीय और छुट भय्यिओं नेताओं तक सभी यहीं अपने फुरसत के लम्हों को एक प्याला चाय की चुस्कियों में बिताने आते रहते हैं|पर यहाँ आकर मकसद भले ही फुरसत के लम्हों को बिताना हो पर यहाँ बैठकर हर कोई एक नया जामा पहन लेता है |"एक प्याला चाय "इन शब्दों से शरू होता यहाँ का सफ़र राजनीति, क्रिकेट और बॉलीवुड की गलियों से गुजरकर कब अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है किसी को पता ही नहीं चलता|यहाँ पर आने वाले लोगो के बीच भी एक अनूठा रिश्ता होता है|मैं भी जब पहली बार गया था तो सबसे अलग ही रहता था पर अब बहुतो के साथ एक नया रिश्ता बन चुका है|"एक प्याला चाय" का रिश्ता |यहाँ लोग एक दूसरे को नाम से नहीं पर उनकी यहाँ की रोज की मौजूदगी से पहचानते हैं|बस जाते ही एक दुसरे की और मुस्कुराये ,अपना चाय का प्याला दिखाकर संबोधन किया और शुरू हो गए चुस्कियों की उड़ान भरने |आपा धापी के इस दौर में जहाँ हर रिश्ता बेमानी सा होता जा रहा है, आदमीयत ख़तम होती जा रही है वहां पर रिश्तों को नया आयाम देने वाला ये मॉडल अपने आप में नए रिश्तों को बनाने की एक नयी गाथा कह रहा है|"शायरी वाले भय्या" "सलमान खान" "पल्सर वाले भय्या" बस इन्ही नामो से सब एक दूसरे को जानते हैं और संबोधित भी करते हैं |कोई यहाँ आर्थिक मंदी की मार के कारण पनपी बेरोजगारी के दुखड़े रोता दिख जायेगा तो कोई सचिन और सहवाग को भी यहीं से क्रिकेट के गुर सिखाने के जतन करता मिलेगा|ऐसा लगता है मानो कल के वैज्ञानिक,क्रिक्केटर,राजनेता,सब यहीं से पनपेंगे और कांग्रेस और भाजपा को अपनी रण नीति यहाँ पर बैठे विदयानो से बनवानी चाहिए |
इतना ही नहीं बल्कि वैश्विक मुद्दों के अलावा यह स्थान लोकल खबर के न्यूज़ चैनल का भी काम बखूबी करते हैं|आपके मोहल्ले की कोई भी घटना जो आप तक नहीं पहुची तो आप यहाँ आकर बैठिये और अनेको संवाददाता आपको सारी खबरों से रू बा रू करा देंगे|फलां लड़का जेल चला गया ,वर्मा जी के यहाँ चोर घुस आये ,कितना सामन लेकर गए उसका सही आकड़ा भी यहाँ ही पता चलेगा ,उपाध्याय जी की मास्टर साहब से तू तू मैं मैं तक की ख़बरें यही आकर सुलभता से मिल जाएँगी | यही आकर इस बात का भी इल्म हो जाता है कि इश्वर ने वास्तव में कुछ चेहरों को फुर्सत में ही बनाया है |TV कि तुलसी पारवती से लेकर कोइना मित्रा जैसे चेहरे जब इन्ही दुकानों के सामने से गुजरते हैं तो लड़के उनको आँखों ही आँखों में घर तक छोडकर आने के बाद ही अपनी नज़र हटाते हैं |
यहाँ कुछ रिश्ते और भी मधुर तब हो जाते हैं जब आपके पास खुले पैसे नहीं होते और कोई अपना हाथ बड़ा कर आपको खुले पैसे थमा देता है |दिल्ली के मुखर्जी नगर ,पुणे के एक्टिंग संस्थानों के बाहर और आगरा के दयालबाग में ऐसी अनेको चाय की दुकानों पर मुझ जैसे करोणों नौजवान सपनो की दुनिया में अपना घर तलाशते नज़र आ जायेंगे|कोई अधिकारी ,कोई अभिनेता तो कोई किसी निजी कंपनी के C E O बनने का सपना यहीं आकर देखता है और वहां तक पहुचने के सक्सेस मंत्रा यहीं पर खोजता रहता है |और यहीं का माहोल उन्हें न सिर्फ उन्हें सपने देखना सिखाता है बल्कि और भी बहुत कुछ सिखा जाता है|मैं तो यहाँ आकर एक प्याला चाय देखकर यही सीख पाया कि जीवन में पैसे कमी अहमियत उतनी ही है जितनी कि "एक प्याला चाय में चीनी की"|बहुत कम हो तो स्वाद नहीं आएगा और बहुत ज्यादा हो तो भी स्वाद बिगड़ जाएगा |
.............हिमांशु सिंह
लाला टी स्टाल
दयालबाग ,आगरा

Saturday, October 10, 2009

हिंदी का भूत.........

हिंदी से डर लगता है। डरावनी हो गई है। सीबीएसई अब हिंदी के सवालों को हल्का करने जा रही है। प्राइवेट स्कूल इंग्लिश मीडियम होते हैं। गांव गांव में टाट की झोंपड़ी में इंग्लिश मीडियम स्कूल के बोर्ड लगे मिल जायेंगे। सुबह सबुह बच्चे सरकती हुई पैंट और लटकती हुई टाई लगाकर जाते मिल जायेंगे। सरकारी स्कूलों के बच्चे पैदल दौड़ लगाकार स्कूल पहुंच जाते हैं। लेकिन अब गांवों में भी स्कूली बच्चों के लिए जालीनुमा रिक्शा आ गया। इनमें बच्चे किसी कैदी की तरह ठूंस कर ले जाये जाते हैं। इंग्लिश मीडियम स्कूलों की तरफ।

मां बाप ने कहा कि इंग्लिश सीखो। हिंदी तो जानते ही है। घर की भाषा है। अब हिंदी से ही डर लगने लगा है। इसलिए सीबीएसई ने तय किया है कि अति लघु उत्तरीय प्रश्नों की संख्या बढ़ा देगी। अब हिंदी के भी सवालों के जवाब हां नां में दिये जायेंगे। गैर हिंदी भाषी बच्चों के लिए हिंदी का डर समझ भी आता है। घर से बाहर निकलते ही इंग्लिश सीखने वाले हिंदी से डरने लगे सुनकर हैरानी तो नहीं हुई लेकिन मन उदास हो गया। अपनी हिंदी डराती भी है ये अभी तक नहीं मालूम था। बहुत पहले विश्वात्मा फिल्म देखी थी। गुलशन ग्रोवर अजब गजब की हिंदी बोलता था। खलनायक के मुंह से शुद्ध या क्लिष्ट हिंदी के नाम पर निकले हर शब्द हंसी के फव्वारे पैदा करते थे। इस हिंदी को तो हिंदी वालों ने ही कब का काट छांट कर अलग कर दिया। मान कर चला जा रहा था कि सरल हिंदी का कब्ज़ा हो चुका है। व्याकरणाचार्यों के जाते ही हमारी हिंदी झंडी की तरह इधर उधर होने लगी। वाक्य विन्यास का विनाश होने लगा। वैसे मेरी हिंदी बहुत अच्छी नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है। ठीक है कि हम व्याकरण मुक्त हो चुके हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले घरों के बच्चे क्या इस वजह से साहित्य नहीं समझ पाते क्योंकि भाषा का इतना अतिसरलीकरण कर दिया गया है कि अब मतलब ही समझ नहीं आता। इस पर बहस होनी चाहिए।

हिंदी से डर की वजह क्या हो सकती है? यह खबर हिंदुस्तान में ही पढ़ी। हिंदी का अखबार लिख रहा है कि कोई हिंदी का भूत है जिससे प्राइवेट स्कूल के बच्चे डर रहे हैं। उन्हें हिंदी के लिए ट्यूशन करना पड़ रहा है। ट्यूशन वैसे ही खराब है लेकिन अंग्रेज़ी के लिए ट्यूशन करने में कोई बुराई नहीं तो फिर अकेले हिंदी का भूत क्यों पैदा किया जा रहा है। मैं हिंदी राष्ट्रवादी की तरह नहीं लगना चाहता लेकिन मेरी ज़ुबान से उतरती हुई भाषा डरावनी कहलाने लगे चिंता हो रही है। वैसे हम भी अंग्रेज़ी से तो डरते ही हैं। कई लोग हैं जो कभी न कभी डरे। अंग्रेज़ी के भूत को काबू में करने के लिए नेसफिल्ड से लेकर रेन एंड मार्टिन और बच गए तो रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स का रट्टा मार गए। मेरे एक लेख की प्रतिक्रिया में शंभू कुमार ने ठीक ही कहा है कि बिहार यूपी के लड़के क्लर्क बनने की इच्छा में अंग्रेज़ी तो सीख ही जाते हैं। हम भी अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया करते थे। अंग्रेज़ी व्याकरण के कई किस्से बिहार यूपी में आबाद हैं। वह गया गया तो गया ही रह गया। घो़ड़ा अड़क कर सड़क पर भड़क गया टाइप के मुहावरे खूब चलते थे। चुनौतियां दी जाती थीं कि इसका ट्रांसलेशन करके दिखा दो। लेकिन हम कभी स्कूल से मांग करने नहीं गए कि बोर्ड को बोलो कि अंग्रेज़ी का भूत परेशान कर रहा है। इसका सिलेबस बदलो।

दरअसल प्राइवेट स्कूलों के रसूख इतने बढ़ गए हैं कि वो ढंग के हिंदी टीचर रखने की बजाय बोर्ड पर दबाव डाल कर सिलेबस बदलवा देते हैं। सब आसान ही करना है तो फिर इम्तहान क्यों रहे। विद्वान तो कह ही रहे हैं कि इम्तहान की व्यवस्था खत्म कर दी जाए। ग्रेड न रहे। इसके लिए तो स्कूल वाले दबाव नहीं डालते। पश्चिम बंगाल की सरकार ने अपने बोर्ड की परीक्षाओं में ग्रेड सिस्टम लागू कर दिये हैं। बिना किसी दबाव के। सीबीएसई कब से ग्रेडिंग सिस्टम लागू करने पर बहस कर रही है। क्यों नब्बे फीसदी का एलान किया जाता है। इतने नंबर वाले बच्चे क्या हिंदी में नंबर नहीं ला सकते। जब रटना ही है तो हिंदी भी रट लो।

मुझे लगता है कि हिंदी का भूत पैदा किया जा रहा है। ताकि हिंदी गायब हो जाए। इंग्लिश मीडियम का हाल ये है कि अच्छी इंग्लिश लिखने वाले कम हो गए हैं। इंग्लिश के लोग ही शिकायत करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को ए एन द जैसे आर्टिकलों का प्रयोग ही नहीं मालूम। प्रिपोज़िशन का पोज़िशन गड़बड़ कर देते हैं। भाषा का भूत नया है। देखते हैं कि प्राइवेट स्कूल वाले इस भूत को कितना नचाते हैं।

Saturday, March 28, 2009


जीवन की इस राह में कभी भी ,कहीं भी अन्धकार में प्रकाश को खोजा जा सकता है

Sunday, March 22, 2009

स्वयं को मेरा बना जाओ तुम.....

साँसो में तुम रहो,यादों में तुम रहो
मेरे दिल में रहो ,बस रहती रहो
इस से ज्यादा भी क्या ,हँसी एहसास हो
मैं भी सुनता रहूँ ,तुम भी कहती रहो


तन में भी मन में भी बस समां जाओ तुम
रूप की सम्पदा यूँ लुटा जाओ तुम,
मैं भी बैठा हूँ बाहें बिखेरे हुए
स्वयं को अब तोः मेरा बना जाओ तुम

...............................................हिमांशु सिंह

Saturday, March 21, 2009

प्रेम का अंतहीन सफर

LOVE IS NOT A RELATIONSHIP
Love relates, but it is not a relationship। A relationship is something finished। A relationship is a noun; the full stop has come, the honeymoon is over। Now there is no joy, no enthusiasm, now all is finished. You can carry it on, just to keep your promises. You can carry it on because it is comfortable, convenient, cozy. You can carry it on because there is nothing else to do. You can carry it on because if you disrupt it, it is going to create much trouble for you… Relationship means something complete, finished, closed. Love is never a relationship; love is relating. It is always a river, flowing, unending. Love knows no full stop; the honeymoon begins but never ends. It is not like a novel that starts at a certain point and ends at a certain point. It is an ongoing phenomenon. Lovers end, love continues– it is a continuum. It is a verb, not a noun.


...............................................................................................हिमांशु सिंह

motivation

A man found a cocoon of a butterfly. One day a small opening appeared. He sat and watched the butterfly for several hours as it struggled to force its body through that little hole. Then it seemed to stop making any progress. It appeared as if it had gotten as far as it could, and it could go no further.
So the man decided to help the butterfly. He took a pair of scissors and snipped off the remaining bit of the cocoon.
The butterfly then emerged easily. But it had a swollen body and small, shriveled wings.
The man continued to watch the butterfly because he expected that, at any moment, the wings would enlarge and expand to be able to support the body, which would contract in time.
Neither happened! In fact, the butterfly spent the rest of its life crawling around with a swollen body and shriveled wings. It never was able to fly.
What the man, in his kindness and haste, did not understand was that the restricting cocoon and the struggle required for the butterfly to get through the tiny opening were God's way of forcing fluid from the body of the butterfly into its wings so that it would be ready for flight once it achieved its freedom from the cocoon.
Sometimes struggles are exactly what we need in our lives. If God allowed us to go through our lives without any obstacles, it would cripple us.
We would not be as strong as what we could have been. We could never fly!
I asked for Strength.........And God gave me Difficulties to make me strong.
I asked for Wisdom.........And God gave me Problems to solve.
I asked for Prosperity.........And God gave me Brain and Brawn to work.
I asked for Courage.........And God gave me Danger to overcome.
I asked for Love.........And God gave me Troubled people to help.
I asked for Favors.........And God gave me Opportunities.
I received nothing I wanted ........I received everything I needed!
Trust in God. Always !
Regards...__________________Himanshu

चल सको तोः चलो

safar mein dhoop to hogi jo chal sako to chalo
sabhi hain bheed mein tum bhi nikal sako to chalo
idhar udhar kai manzil hain chal sako to chalo
bane banaaye hain saaNche jo Dhal sako to chalo
kisi ke waasate raahen kahaaN badalati hain
tum apane aap ko Khud hi badal sako to चलो
yahaaN kisi ko koi raastaa nahi deta mujhe gir
aake agar tum sambhal sako to chalo
yahi hai zindagi kuchh Khaak chand ummeeden inhi khilono se tum bhi bahal sako to chalo
har ik safar ko hai mahafoos raaston ki talaash hifaazaton ki rivaayat badal sako to चलो
kahi nahi koi sooraj dhuaaN dhuaaN hai fizaa Khud apane aap se baahar nikal sako to चलो