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Sunday, January 10, 2010

एक प्याला चाय....


मैक डोनाल्ड और पिज्जा हट की चका चौंध की ओर भागने वाली इस दुनिया में आज भी कहीं ऐसा कोना है जहाँ आपको सर और मैडम कहते नौजवान और नव युवती नहीं दिखेंगे और ना ही आपको खाने के लिए एक लम्बा किताबनुमा मेनू थमा दिया जायेगा|आपने कभी न कभी तो अपने दोस्तों ,अपने साथियों या अपने सहकर्मियों के साथ कहीं न कहीं किसी एक दूर छुपे हुए कोने में एक बरसाती की छांव के तले बनी एक चाय की दूकान पर एक प्याला चाय तो पी ही होगी |.मैं भी यहाँ अपने इसी अनुभव जो की अब एक दिनचर्या का अहम् हिस्सा भी बन चुका है पर अपना लेख लिख रहा हूँ |मेरे भी इंजीनियरिंग कॉलेज से कुछ क़दमों की दूरी पर एक ऐसी ही बरसाती की छावं तले एक चाय की दूकान पर हमेशा एक जमावड़ा लगा रहता है| इंजीनियरिंग ,डिप्लोमा,कला,विज्ञान के छात्रो से लेकर स्थानीय और छुट भय्यिओं नेताओं तक सभी यहीं अपने फुरसत के लम्हों को एक प्याला चाय की चुस्कियों में बिताने आते रहते हैं|पर यहाँ आकर मकसद भले ही फुरसत के लम्हों को बिताना हो पर यहाँ बैठकर हर कोई एक नया जामा पहन लेता है |"एक प्याला चाय "इन शब्दों से शरू होता यहाँ का सफ़र राजनीति, क्रिकेट और बॉलीवुड की गलियों से गुजरकर कब अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है किसी को पता ही नहीं चलता|यहाँ पर आने वाले लोगो के बीच भी एक अनूठा रिश्ता होता है|मैं भी जब पहली बार गया था तो सबसे अलग ही रहता था पर अब बहुतो के साथ एक नया रिश्ता बन चुका है|"एक प्याला चाय" का रिश्ता |यहाँ लोग एक दूसरे को नाम से नहीं पर उनकी यहाँ की रोज की मौजूदगी से पहचानते हैं|बस जाते ही एक दुसरे की और मुस्कुराये ,अपना चाय का प्याला दिखाकर संबोधन किया और शुरू हो गए चुस्कियों की उड़ान भरने |आपा धापी के इस दौर में जहाँ हर रिश्ता बेमानी सा होता जा रहा है, आदमीयत ख़तम होती जा रही है वहां पर रिश्तों को नया आयाम देने वाला ये मॉडल अपने आप में नए रिश्तों को बनाने की एक नयी गाथा कह रहा है|"शायरी वाले भय्या" "सलमान खान" "पल्सर वाले भय्या" बस इन्ही नामो से सब एक दूसरे को जानते हैं और संबोधित भी करते हैं |कोई यहाँ आर्थिक मंदी की मार के कारण पनपी बेरोजगारी के दुखड़े रोता दिख जायेगा तो कोई सचिन और सहवाग को भी यहीं से क्रिकेट के गुर सिखाने के जतन करता मिलेगा|ऐसा लगता है मानो कल के वैज्ञानिक,क्रिक्केटर,राजनेता,सब यहीं से पनपेंगे और कांग्रेस और भाजपा को अपनी रण नीति यहाँ पर बैठे विदयानो से बनवानी चाहिए |
इतना ही नहीं बल्कि वैश्विक मुद्दों के अलावा यह स्थान लोकल खबर के न्यूज़ चैनल का भी काम बखूबी करते हैं|आपके मोहल्ले की कोई भी घटना जो आप तक नहीं पहुची तो आप यहाँ आकर बैठिये और अनेको संवाददाता आपको सारी खबरों से रू बा रू करा देंगे|फलां लड़का जेल चला गया ,वर्मा जी के यहाँ चोर घुस आये ,कितना सामन लेकर गए उसका सही आकड़ा भी यहाँ ही पता चलेगा ,उपाध्याय जी की मास्टर साहब से तू तू मैं मैं तक की ख़बरें यही आकर सुलभता से मिल जाएँगी | यही आकर इस बात का भी इल्म हो जाता है कि इश्वर ने वास्तव में कुछ चेहरों को फुर्सत में ही बनाया है |TV कि तुलसी पारवती से लेकर कोइना मित्रा जैसे चेहरे जब इन्ही दुकानों के सामने से गुजरते हैं तो लड़के उनको आँखों ही आँखों में घर तक छोडकर आने के बाद ही अपनी नज़र हटाते हैं |
यहाँ कुछ रिश्ते और भी मधुर तब हो जाते हैं जब आपके पास खुले पैसे नहीं होते और कोई अपना हाथ बड़ा कर आपको खुले पैसे थमा देता है |दिल्ली के मुखर्जी नगर ,पुणे के एक्टिंग संस्थानों के बाहर और आगरा के दयालबाग में ऐसी अनेको चाय की दुकानों पर मुझ जैसे करोणों नौजवान सपनो की दुनिया में अपना घर तलाशते नज़र आ जायेंगे|कोई अधिकारी ,कोई अभिनेता तो कोई किसी निजी कंपनी के C E O बनने का सपना यहीं आकर देखता है और वहां तक पहुचने के सक्सेस मंत्रा यहीं पर खोजता रहता है |और यहीं का माहोल उन्हें न सिर्फ उन्हें सपने देखना सिखाता है बल्कि और भी बहुत कुछ सिखा जाता है|मैं तो यहाँ आकर एक प्याला चाय देखकर यही सीख पाया कि जीवन में पैसे कमी अहमियत उतनी ही है जितनी कि "एक प्याला चाय में चीनी की"|बहुत कम हो तो स्वाद नहीं आएगा और बहुत ज्यादा हो तो भी स्वाद बिगड़ जाएगा |
.............हिमांशु सिंह
लाला टी स्टाल
दयालबाग ,आगरा

Saturday, October 10, 2009

हिंदी का भूत.........

हिंदी से डर लगता है। डरावनी हो गई है। सीबीएसई अब हिंदी के सवालों को हल्का करने जा रही है। प्राइवेट स्कूल इंग्लिश मीडियम होते हैं। गांव गांव में टाट की झोंपड़ी में इंग्लिश मीडियम स्कूल के बोर्ड लगे मिल जायेंगे। सुबह सबुह बच्चे सरकती हुई पैंट और लटकती हुई टाई लगाकर जाते मिल जायेंगे। सरकारी स्कूलों के बच्चे पैदल दौड़ लगाकार स्कूल पहुंच जाते हैं। लेकिन अब गांवों में भी स्कूली बच्चों के लिए जालीनुमा रिक्शा आ गया। इनमें बच्चे किसी कैदी की तरह ठूंस कर ले जाये जाते हैं। इंग्लिश मीडियम स्कूलों की तरफ।

मां बाप ने कहा कि इंग्लिश सीखो। हिंदी तो जानते ही है। घर की भाषा है। अब हिंदी से ही डर लगने लगा है। इसलिए सीबीएसई ने तय किया है कि अति लघु उत्तरीय प्रश्नों की संख्या बढ़ा देगी। अब हिंदी के भी सवालों के जवाब हां नां में दिये जायेंगे। गैर हिंदी भाषी बच्चों के लिए हिंदी का डर समझ भी आता है। घर से बाहर निकलते ही इंग्लिश सीखने वाले हिंदी से डरने लगे सुनकर हैरानी तो नहीं हुई लेकिन मन उदास हो गया। अपनी हिंदी डराती भी है ये अभी तक नहीं मालूम था। बहुत पहले विश्वात्मा फिल्म देखी थी। गुलशन ग्रोवर अजब गजब की हिंदी बोलता था। खलनायक के मुंह से शुद्ध या क्लिष्ट हिंदी के नाम पर निकले हर शब्द हंसी के फव्वारे पैदा करते थे। इस हिंदी को तो हिंदी वालों ने ही कब का काट छांट कर अलग कर दिया। मान कर चला जा रहा था कि सरल हिंदी का कब्ज़ा हो चुका है। व्याकरणाचार्यों के जाते ही हमारी हिंदी झंडी की तरह इधर उधर होने लगी। वाक्य विन्यास का विनाश होने लगा। वैसे मेरी हिंदी बहुत अच्छी नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है। ठीक है कि हम व्याकरण मुक्त हो चुके हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले घरों के बच्चे क्या इस वजह से साहित्य नहीं समझ पाते क्योंकि भाषा का इतना अतिसरलीकरण कर दिया गया है कि अब मतलब ही समझ नहीं आता। इस पर बहस होनी चाहिए।

हिंदी से डर की वजह क्या हो सकती है? यह खबर हिंदुस्तान में ही पढ़ी। हिंदी का अखबार लिख रहा है कि कोई हिंदी का भूत है जिससे प्राइवेट स्कूल के बच्चे डर रहे हैं। उन्हें हिंदी के लिए ट्यूशन करना पड़ रहा है। ट्यूशन वैसे ही खराब है लेकिन अंग्रेज़ी के लिए ट्यूशन करने में कोई बुराई नहीं तो फिर अकेले हिंदी का भूत क्यों पैदा किया जा रहा है। मैं हिंदी राष्ट्रवादी की तरह नहीं लगना चाहता लेकिन मेरी ज़ुबान से उतरती हुई भाषा डरावनी कहलाने लगे चिंता हो रही है। वैसे हम भी अंग्रेज़ी से तो डरते ही हैं। कई लोग हैं जो कभी न कभी डरे। अंग्रेज़ी के भूत को काबू में करने के लिए नेसफिल्ड से लेकर रेन एंड मार्टिन और बच गए तो रैपिडेक्स इंग्लिश स्पिकिंग कोर्स का रट्टा मार गए। मेरे एक लेख की प्रतिक्रिया में शंभू कुमार ने ठीक ही कहा है कि बिहार यूपी के लड़के क्लर्क बनने की इच्छा में अंग्रेज़ी तो सीख ही जाते हैं। हम भी अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया करते थे। अंग्रेज़ी व्याकरण के कई किस्से बिहार यूपी में आबाद हैं। वह गया गया तो गया ही रह गया। घो़ड़ा अड़क कर सड़क पर भड़क गया टाइप के मुहावरे खूब चलते थे। चुनौतियां दी जाती थीं कि इसका ट्रांसलेशन करके दिखा दो। लेकिन हम कभी स्कूल से मांग करने नहीं गए कि बोर्ड को बोलो कि अंग्रेज़ी का भूत परेशान कर रहा है। इसका सिलेबस बदलो।

दरअसल प्राइवेट स्कूलों के रसूख इतने बढ़ गए हैं कि वो ढंग के हिंदी टीचर रखने की बजाय बोर्ड पर दबाव डाल कर सिलेबस बदलवा देते हैं। सब आसान ही करना है तो फिर इम्तहान क्यों रहे। विद्वान तो कह ही रहे हैं कि इम्तहान की व्यवस्था खत्म कर दी जाए। ग्रेड न रहे। इसके लिए तो स्कूल वाले दबाव नहीं डालते। पश्चिम बंगाल की सरकार ने अपने बोर्ड की परीक्षाओं में ग्रेड सिस्टम लागू कर दिये हैं। बिना किसी दबाव के। सीबीएसई कब से ग्रेडिंग सिस्टम लागू करने पर बहस कर रही है। क्यों नब्बे फीसदी का एलान किया जाता है। इतने नंबर वाले बच्चे क्या हिंदी में नंबर नहीं ला सकते। जब रटना ही है तो हिंदी भी रट लो।

मुझे लगता है कि हिंदी का भूत पैदा किया जा रहा है। ताकि हिंदी गायब हो जाए। इंग्लिश मीडियम का हाल ये है कि अच्छी इंग्लिश लिखने वाले कम हो गए हैं। इंग्लिश के लोग ही शिकायत करते हैं कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को ए एन द जैसे आर्टिकलों का प्रयोग ही नहीं मालूम। प्रिपोज़िशन का पोज़िशन गड़बड़ कर देते हैं। भाषा का भूत नया है। देखते हैं कि प्राइवेट स्कूल वाले इस भूत को कितना नचाते हैं।